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________________ १९८ चौर-कालीन भारत उतना ही धन अपने पास से उस मनुष्य को दे"* । इससे पता लगता है कि कर के तौर पर राजा को जो कुछ मिलता था, वह उसका वेतन समझा जाता था, जिसके बदले में वह प्रजा की रक्षा करता था; और उसकी शक्ति कभी निरंकुश नहीं थी। प्राचीन काल के राज्यों में कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संस्थाएँ ऐसी रहती थीं जो राजा पर पूरी तरह से अंकुश या दबाब रखती थीं। इस तरह की संस्थाएँ ग्राम-परिषद् (गाँव की पंचायतें), नगर-परिषद् (नगर की पंचायतें), भिन्न भिन्न प्रकार के व्यापारियों को "श्रेणी” या पंचायतें, बौद्ध संघ इत्यादि थे। ये सब संस्थाएँ अपने अपने कार्य और क्षेत्र में पूर्ण स्वतंत्र थीं। कोई राजा इनके कामों में दखल नहीं दे सकता था। बल्कि इन संस्थाओं के कारण राजा की शक्ति और अधिकार मर्यादित तथा सीमाबद्ध रहते थे। राजा इन संस्थाओं को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देख सकता था। धर्म-शास्त्रों तथा अर्थ-शास्त्रों में राजाओं को बराबर यही शिक्षा दी गई है कि वे पौर, जानपद, श्रेणी आदि के नियमों का आदर करें और उनकी सम्मति ग्रहण करें। राजाओं के अधिकार कितने मर्यादित और सीमा-बद्ध थे, यह "तेलपत्त जातक" से जाना जाता है । उसमें लिखा है कि एक बार तक्षशिला का एक राजा एक परम सुंदरी यक्षिणी के प्रेम में फंस गया । उस यक्षिणी ने यह समझकर कि अब राजा पूरी तरह से मेरे वश में हो गया है, उससे कुल राज्य का अधिकार माँगा। राजा ने उत्तर दिया-"प्रियतमे, अपनी प्रजा पर मेरा . अर्थशास्त्रः १६०. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034762
Book TitleBauddhkalin Bharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJanardan Bhatt
PublisherSahitya Ratnamala Karyalay
Publication Year1926
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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