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गजनोमिक विचार
करता था। यह एक तरह की युद्ध की दशा थी । इस दशा का अन्त तभी हुश्रा, जब मनुष्यों ने अपनी स्वतंत्रता एक मनुष्य के हाथ में दी; अर्थात् जब राजा या एकतन्त्र राज्य की स्थापना हुई।
राजा नर रूप में देवता है-प्रावीन समय में राजा की उत्पत्ति के बारे में दूसरा विचार यह फैला हुआ था कि वह वर रूप में विष्णु का अवतार है। इस विचार के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक महाभारत (शान्तिपर्व, अध्याय ५९) में लिखा है । भीष्म से युधिष्ठिर पूछते हैं-"भगवन् , इस पृथ्वी पर 'राजा' की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? हाथ, पैर, मुँह, नाक, कान आदि अंग और जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख आदि गुण अन्य मनुष्यों के समान होने पर भी क्या कारण है कि राजा दूसरे मनुष्यों पर राज्य करता है ? और क्या कारण है कि सब मनुष्य एक ही पुरुष की आज्ञा में चलते हैं ?" इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह कहते हैं"पहले कृतयुग में राजा या राज्य, दण्ड-कर्ता या दण्ड कुछ भी न था । प्रजा ही धर्म की अनुगामिनी होकर आपस में एक दूसरे की रक्षा करती थी। पर धीरे धीरे लोगों की नीयत बिगड़ने लगी और वे मोह तथा अज्ञान में पड़ गये । इस प्रकार ज्ञान लुप्त होने के कारण उनके धर्म-कार्य नष्ट होने लगे। उनमें दोष-अदोष का कुछ भी विचार न रहा । वेद तथा यज्ञादि धर्म-कर्म लुप्त हो गये। तब देवता लोग भयभीत होकर जगत्पितामह ब्रह्मा की शरण में उपस्थित हुए और स्तुति करके बोले-“हे भगवन् , मनुष्यों में लोभ, मोह आदि भावों के उदित होने से यज्ञ आदि धर्म कर्म नष्ट हो गये हैं। इससे हम लोग भी नष्ट-प्राय हो रहे हैं। हे. पितामह, आपकी कृपा से हम लोगों को जो कुछ ऐश्वर्य प्राप्त
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