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चौद्ध-कालीन भारत
१०२ भिक्षुओं से यह प्रश्न किया जाता था कि आप लोगों को यह प्रस्ताव स्वीकृत है या नहीं। यह प्रश्न या तो एक बार किया जाता था, या तीन बार । जब संघ के सामने नियम के अनुसार एक बार या तीन बार प्रस्ताव रख दिया जाता था, तब वह आप ही आप स्वीकृत हो जाता था । यदि कोई सभ्य उसके विरुद्ध कहता था और उस पर मत-भेद होता था, तो बहुमत के अनुसार निर्णय होता था । उपस्थित सभ्यों की राय बाकायदा ली जाती थी। संघ की ओर से एक भिक्षु सब लोगों की राय लेने के लिये नियुक्त किया जाता था ।*
यदि परिषद् के सामने कोई ऐसागंभीर और पेचीदा मामला रखा जाता था, जिसे वह परिषद् न तै कर सकती थी, तो वह मामला उसी स्थान के किसी ऐसे सघ के पास भेज दिया जाता था, जिसमें उससे अधिक भिक्षु रहते थे। विनयपिटक के चुल्लवग्ग (४. १४-१७) में इस कार्य की विधि विस्तारपूर्वक दी गई है । जिस संघ के पास यह मामला भेजा जाता था, वह पहले से यह तै कर लेता था कि हम जो फैसला करेंगे, वह तुम्हें मानना पड़ेगा। तब वह संघ उस मामले पर विचार करता था । यदि मामला पेचीदा होता था और उस पर बहुत वाद-विवाद होता था, तो वह मामला एक विशेष परिषद् के सामने रक्खा जाता था। इस परिषद् के लिये केवल बहुत ही योग्य और प्रसिद्ध भिक्षु चुने जाते थे। यदि विशेष परिषद् भी उस मामले में कोई फैसला न कर सकती थी, तो वह उस मामले को फिर संघ के पास भेज देती था; और संघ में, यह मामला बहुमत के अनु
* चुल्लवग्ग (४. ६.)
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