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________________ बौद्ध-कालीन भारत भिक्षु बौद्ध संघ का एक पूरा अंग हो जाता था। अब उसका जीवन संघ के जीवन में इतना मिल जाता था कि उसके व्यक्ति गत जीवन का एक तरह से लोप ही हो जाता था। छोटी छोटी बातों में भी उसे संघ के नियमों के अनुसार ही अपना जीवन बिताना पड़ता था । यदि वह उन नियमों का कुछ भी भंग करता था, तो उसे संघ की ओर से उचित दण्ड दिया जाता था । उसे किस तरह का वस्त्र पहनना चाहिए, कहाँ सोना चाहिए, कहाँ बैठना चाहिए, कैसा भोजन करना चाहिए, कैसा पात्र रखना चाहिए, कैसे स्नान करना चाहिए इत्यादि छोटी छोटी बातों के भी अनेक नियम थे, जिनका पालन करना भिक्षुओं के लिये परमावश्यक था । इन नियमों का संबंध भिक्षु के समस्त जीवन से था। बौद्ध संघ का यह सिद्धांत था कि भिक्षु तुच्छ से तुच्छ और आवश्यक से आवश्यक कार्य भी संघ की आज्ञा के बिना न करे। भिक्षुओं को तीन वस्त्र पहनने की आज्ञा थी, जो "त्रिचीवर" कहलाते थे । “अन्तर्वासक", "उत्तरासंग” और “संघाटी" ये तीनों मिलकर त्रिचीवर कहलाते थे। काषाय रंग के होने के कारण भिक्षुओं के वस्त्रों को "काषाय" भी कहते थे। “अन्त सक" नीचे का वस्त्र था और कमर से लटकता रहता था। "उत्तरासंग" ऊपर का वस्त्र था और उससे एक कन्धा, छाती और दोनों जाँघे ढकी रहती थीं; अर्थात् वह एक कन्धे से लेकर दोनों जाँघों के नीचे तक लटकता रहता था। “संघाटी” भी ऊपर का वस्त्र था, और वह छाती तथा दोनों कन्धों के चारों ओर लपेटा जाता था। वह एक तरह का लबादा सा होता था Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034762
Book TitleBauddhkalin Bharat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJanardan Bhatt
PublisherSahitya Ratnamala Karyalay
Publication Year1926
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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