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बौद्ध-कालीन भारत
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श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाद्ज्ञानयज्ञः परन्तप । सर्व कर्माखिलं पार्थ ! ज्ञाने परिसमाप्यते ॥
(गीता, ४. ३३.) अर्थात् द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ है; क्योंकि सब प्रकार के कर्मो का पर्यवसान ज्ञान में ही होता है।
(१०) बौद्ध धर्म में ईश्वर-वाद नहीं माना जाता। किन्तु यह भी बुद्धदेव की निजी कल्पना नहीं है । सांख्य और मीमांसा दर्शन यह बात पहले ही से कहते आते थे।
(११) बहुत से लोग बौद्ध धर्म की विशेषता दिखलाने के लिये उसके कर्मवाद का उल्लेख करते हैं। किन्तु प्राचीन हिन्दू धर्म की यह एक बहुत ही प्रसिद्ध बात है। उपनिषदों में इसके संबंध में अनेक वाक्य हैं । बृहदारण्यक में लिखा है.---"पुण्यो वै पुण्ये न कर्मणा भवति, पापः पापेन।" अर्थात् पुण्य कर्म से पुण्य होता है और पाप कर्म से पाप होता है। गीता में भी कहा है"लोकोऽयं कर्मबन्धनः"। अर्थात् यह लोक कर्मों से बँधा हुआ है। इसका अर्थ यह है कि लोगों को अपने शुभाशुभ कम्मों का फल भोगना पड़ता है।
(१२) मैत्री आदि भावनाएँ बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध लक्षण हैं। पर ये भावनाएँ भी बुद्ध की अपनी कल्पना नहीं हैं। वेद की संहिताओं के समय से ही ये भावनाएँ भारत के भावुकों के हृदय में प्रकाशित हुई हैं । ऋषि कहते हैंमित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।
(वाजसनेयि संहिता) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com