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गति प्राप्त करता है। विधिपूर्वक वेदोंको पढ़कर, धर्मानुसार पुत्रोंको उत्पन्न करके और शक्त्यनुसार यज्ञ करके फिर मोक्षमें मनको लगाना चाहिए । वेदोंको बिना पढ़े, पुत्रोंको बिना उत्पन्न किए तथा बिना यज्ञ किए मोक्ष चाहनेवाला अधोगति प्राप्त करता है।
याज्ञवल्क्य शंख तथा दूसरी सभी स्मृतियाँ प्रायः इसी बातका समर्थन करती हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति गृहस्थाश्रमके बाद भी संन्यासकी अनुमति देती है। मनुस्मृतिमें संन्याससे पहले वानप्रस्थाश्रमके लिये कहा है
गृहस्थस्तु यदा पश्येदली पलितमात्मनः ।
अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत् ॥ अर्थात् गृहस्थ जब अपने बाल सफेद, झुर्रियाँ पड़ी हुई चमड़ी तथा पौत्रको देख लेवे, तब वनका आश्रय ले।
इन सब प्रमाणोंसे यह सिद्ध होता हैं कि हिन्दूधर्मकी स्मृतियां गृहस्थाश्रमसे पहले संन्यासका निषेध करती हैं।
अब हम इस विषयमें श्रुतियोंके भी थोड़ेसे प्रमाण दे देना मावश्यक समझते हैंशतपथ ब्राह्मणके चौदहवें काण्डमें आया है
"ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् ,
गृही भूत्वा वनी भवेत् , वनी भूत्वा प्रजेत् ।" अर्थात्-ब्रह्मचर्याश्रमको समाप्त करके गृहस्थ बने, गृहस्थाश्रम को समाप्त करके वानप्रस्थ बने और उसके बाद प्रव्रज्या स्वीकार करे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com