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जुज तंत्र्या जिन मह कृलंकेंसो ऽवाप यत्र धरऐजात्, विजयामोघां शक्तिं ॥ स०॥ १५॥ यत्रारिमपि वसन्तं तीर्थे प्रहरन् सुखेचरोऽपि स्यात्, वसुदेव मिवा विद्यः ॥ स० ॥२०॥ अचले ऽत्रोदय मचलं स्वशक्ति वन्दित जिनो जनो बनते, वीरो ऽवर्णयदिति यं ॥ स०॥१॥ चतुर श्चतुरोऽष्ट दश सौ चापाच्यादि दिनु जिन बिंबान्, यत्रावन्दत गणनृत् ॥ स॥२॥प्रजु नणित पुंमरीका ध्ययनात् सुरो ऽत्र दशमो ऽनृत्, दश पूर्विघुमरीका ॥स॥३॥ यत्र स्तुत जिन नाथो दीक्षित तापस शतानि पंचदश,श्री गौतम गणनाथः ॥स॥॥ श्त्यष्टापद पर्वत श्व योऽष्टापद मय श्विर स्थायी, व्यावर्णि महा तीर्थ, स जयत्यष्टापद गिरीशः ॥२५॥ इति श्री अष्टापद कल्पः॥
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