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________________ महावीरने जब गृहस्थ धर्मका उपदेश दिया तब जिन-जिन गृहस्थियों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया वे सबके सब प्रायः करोड़पति ही थे। जिनकी करोड़पतिकी गणना चांदी के रुपयों से नहीं, वरन् सोनैया अर्थात् सोनेकी मोहरासे होती थी। वाणिज्य गांवमें जब प्रभु पधारे तो वहां आनन्द नामका एक सेठ रहता था । वह बारह करोड़ सोनयाका स्वामी था । भगवानके सतोपदेशसे उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया और उसी दिनसे अहिंसाका सच्चा उपासक बन गया। भगवानका अहिंसाका उपदेश आत्मशुद्धिका उपदेश था । विना अहिंसाके आत्मशुद्धि हो ही नहीं सकती । भगवान महावीरने आत्मशुद्धि के लिए पृथक-पृथक तरीके बताये हैं। ज्यों-ज्यों प्राणो स्वार्थ और तृष्णाको तजता है त्यों-त्यों वह आत्मकल्याणकी ओर अग्रसर होता जाता है । और जब वह पूर्ण निर्विकार रागद्वेष रहित हो जाता है तब ही उसकी पूर्ण विशुद्धि हो जाती है । इसी स्वार्थ और तृष्णाको नष्ट करनेके लिए प्रभु महावीरने पांच बातें बताई हैं । अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य और अपरिग्रह । इन अहिंसादि पांच व्रतोंके उच्च आदर्शको प्रत्येक व्यक्ति पूर्णरूपेण पालन नहीं कर सकता इसलिए प्रभु महावीरने इसे अणुव्रत और महाव्रत इन दो भागोंमें बांट दिया। इन दो विभागोंमें बंट जानेसे इनमें व्यवहारिकता आ गई; तथा साधारण शक्ति वालोंके लिए भी आत्मकल्याणका मार्ग खुल गया । अणुव्रत का प्रवृत्ति मार्ग भी निवृत्ति मार्गपर ले जानेवाला बन गया; अतः अणुShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034732
Book TitleAntim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Vaidmutha
PublisherGulabchand Vaidmutha
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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