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नायगा, तूने अपना वह पांव दयाके कारण पूरे तीन दिनतक ऊपर ही उठा रखा । तीसरे दिन जब अग्नि शांत पड़ी और सब प्राणी वहांसे चले गये, तो अपनी प्यास बुझानेके हेतु जलाशयके पास जानेके कारण नमीनपर टिका नहीं और तू धड़ामसे गिरकर उसी समय मर गय । उस तीन ही दिनकी पवित्र दयाके कारण मरकर इस भवमें तू मनुष्य रूपमें आकर राजपुत्र बना । अतः अब इस संयम व्रतको धारणकर उसे छोड़ना कायरपन है अब तो तुझे एक वीरकी भांति काँपर विजय प्राप्त करना चाहिए ।
भगवानके इस अमृतमय उपदेशको सुन मेघमुनिको जाति स्मरण ज्ञान पैदा हो गया । उसने अपने पूर्व भव भी सारी बातें जानली । तब तो मेघमुनिका विचलित मन पुनः संयमत्रतमें सुदृढ़ हो गया और उसी दिनसे वे कठोरसे कठोर तपकी आराधना करने लगे।
इसी प्रकार भगवानने गृहस्थी अवस्थाके जामाता जामालि एवं उनकी पुत्री प्रिय दर्शनाजी ने भी भगवानके लोक हितकारक उपदेशको सुनकर कुण्डग्राममें दीक्षा लेली। इनमेंसे मिथ्यात्व का उदय होने के कारण नामालितो मिथ्यात्वी ही बने रहे; परन्तु प्रिय दर्शनाजीने प्रभुकी शरण गहकर उत्तम साध्वी जीवन बिताना आरंभ कर दिया।
ग्रहस्थ अर्थात् श्रावक धर्म
जैन शास्त्रोंके पठनसे ऐसा प्रतीत होता है कि आजसे पच्चीस सौ वर्ष पूर्व यह भारतभूमि स्वर्णमयी भूमि थी। क्योंकि प्रभु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com