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रहा था । अपने-अपने स्वाँसे देवता लोग उस समवसरणमें प्रभु का उपदेश सुननेके लिए आ रहे थे। पहले तो यह कौतुक देख इन्द्रभूति आदिको बहुत ही हर्ष हुआ । वे सोचने लगे कि देवता
ओंके विमान हमारे यज्ञकी ओर आ रहे हैं सचमुच हमारे मन्त्रोंमें बड़ी ही शक्ति है । परन्तु जब वे देवताओंके विमान सर्वज्ञ भगवान महावीरके समवसरणकी ओर जाने लगे तो उन पंडितोंका हर्प विलीन हो गया । वे सोचने लगे कि यह कोई इन्द्रजाल जो नहीं है कि देवतागरण कदाचित् भूलकर यज्ञ में आनकी अपेक्षा कहीं अन्यत्र भटक रहे हैं। इस वातकी जब उन्होंने पूछताछ की तो उन्हें पता लगा कि यहां कोई महावीर नामका सर्वज्ञ आया हुआ है उसीके समवसरणमें ये देवता लोग जा रहे हैं। यह बात जानकर इन्द्रभूति श्रादि विद्वानोंको बड़ा क्रोध आया । वे सोचने लगे कि दुनिया में कोई भी हमसे अधिक विद्वान नहीं है, यह महावीर कहांका सर्वज्ञ है, यह तो अवश्य कोई ढोंगी मायाजाली है इले चलकर सीधा करना चाहिए और उसके पाखंडको पोल सबकी उपस्थितिमें खोलना चाहिए ।
इस प्रकार क्रोधित हो वह इन्द्रभूति वहां से भगवानकी ओर चल पड़ा। वह उस समवसरणमें आया कि उसकी रचना देख चकित हो गया । फिर वह आगे बढ़ा और अपने पांच सौ शिष्य सहित विना भगवानको सरकार तथा विनय किये ही सभा मंडपमें भगवानके सन्मुख उद्दण्डतापूर्वक उपस्थित हुआ। ज्योंही वह भगवान के सन्मुख आया त्योंही सर्वज्ञ प्रभुने उसका नाम लेकर उसे उसके गोत्रीय शब्दोंमें सम्बोधित किया । फिर तो इन्द्रभूतिको कुछ अचंभा हुआ फिर भी उसने सोचा कि "मैं तो जगविख्यात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com