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________________ यों तो वे ग्यारहों पंडित अपने समयके दिग्गज विद्वान थे और धार्मिक विद्याओं में एवं अनेक भाषाओंमें सर्वांग अधिकार रखते थे। तब भी उनके हृदयमें धार्मिक विषयों में कोई न कोई शंका बनी रहती थी, जिसे वे, अपने पांडित्यमें धक्का लगनेके भयसे, किसीके सामने प्रगट नहीं कर सकते थे। इन्द्रभूतिके मन में 'जीव है या नहीं' यह संशय घुसा हुआ था; अग्निभूति के दिलमें 'कर्म कोई पदार्थ है या नहीं' यह चक्कर पड़ा हुआ था; वायुभूतिको 'यह शरीर ही जीव है या जीव कोई पृथक पदार्थ है यह शंका थी; व्यक्तको 'जगत कोई वास्तविक पदार्थ है या शन्य है। यह भाव सता रहा था; सौधर्मका मन 'जविके जन्मान्तरोंके रूपों में समता और विषमता' की उधेड़बुन कर रहा था; मंडित को 'मुक्ति और बंध है या नहीं' इसी बातकी पंचायत पड़ी थी, मौर्य देवों हाके अस्तित्वमें शंकाशील थे; अकम्पको 'नरक गति है या नहीं' यह विचार बेचैन कर रहा था; अचलभ्रातको 'पुण्य और पाप' एवं मेतार्यको ‘परलोकके अस्तित्व और आत्माकी स्वतन्त्रता' और श्री प्रभासको 'मुक्तिकी विद्यमानता' में नाना प्रकारके संकल्प विकल्प हो रहे थे। परन्तु उनमेंसे कोई भी अपनी शंकाओंका समाधान औरोंसे करवाना अपनी न्यूनता समझता था । वे सदा शंकाशील बने रहते थे मगर शंका मिटानेका कुछ भी उपाय नहीं करते थे। उनके सिवाय दिशा विदिशाओंसे और भी इतर पंडित लोग भी उस यज्ञमें सम्मिलित हुए थे। यज्ञ बहुत बड़ा था इसलिए वहां चारों ओरसे अपार भीड़ जमा हो रही थी। ___एक ओर सोमिलके यहां यज्ञकी धूम हो रही थी । दूसरी और भगवान के समवसरण में देवताओंका आगमन तेजीके साथ हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034732
Book TitleAntim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Vaidmutha
PublisherGulabchand Vaidmutha
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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