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उपदेश प्रदान जैन शास्त्रोंमे यह वात विशेष रूपसे उपलब्ध है कि तीर्थकर विना केवल ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता प्राप्त किये किसी प्रकारका धर्मोपदेश ही नहीं करते । यही कारण है कि जैन धर्म सर्वज्ञोंका धर्म कहलाता है जहां परस्पर विरोधाभासका कहीं आभासतक भी नहीं मिलता । केवल ज्ञानके पूर्व भगवान महावीरने भी कठोरसे कठोर कष्ट सहन करते हुए प्रायः मौन धृतको धारण कर रखा था।
केवल ज्ञान प्राप्त करके अगतके जीवोंको दुखित देखकर भगचानने अब उस दिव्य सत्य-सन्देशको जगतमें प्रसारित करना चाहा जिससे प्राणी मात्रको पूर्ण सुख और शांति प्राप्र हो। उन्होंने लोक कल्याण के लिए समयानुसार अपने कार्यक्रमको बदलनेमें ही सच्ची विश्रांतिका अनुभव किया और परोपकारको ही जिसमें जीवमात्रोंका समावेश हो जाता है-~-ऐसे आत्मोपकार, परोपकारप्रजातन्त्रवाद जिसमें जीवमानोंका समावेश हो जाता है के समान अपनाया।
इस समय भारत भरमें हिंसा ही हिंसा को राज्य हो रहा था, स्वार्थी लोगोंने वेदों का अर्थ ही बदल दिया था, जहां देखो वहीं धर्मके नाम पर यज्ञादि क्रियाओंमें लाखों जीवों का हनन हो रहा था, सारी पृथ्वी मूक प्राणियों के रक्तसे दूषित हो रही थी, स्वार्थियों ने अपने मनोरथोंकी सिद्धिमें सैकड़ों राजा महाराओंको धर्म का नाम लेकर अधर्म की ओर अग्रसर कर दिया था । सर्वत्र हाहाकार
मचा हुआ था, कहीं अश्वमेध यज्ञोंमें सहस्रों घोड़ों का बलिदान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com