________________
८४
परन्तु पशुबल सदैव मुंहकी खाता रहा । प्रतिपक्षियोंपर प्रभुकी पोरसे तनिक भी वार न हुआ तिसपर भी विजयश्रीने अन्त में भगवानको ही बरा और शत्रुओं के पैर उखड़ गये । प्रभुका यह दिव्य चरित्र मूक-भावसे हमारे सामने आत्मबलका एक उत्तम श्रादर्श रखता है।
प्रभुने जितना तप किया वह प्रतिज्ञा-पूर्वक ही किया। ध्यान, मौन, आसन, समाधि और आत्मा चिन्तवन कर अनमें शुक्ल ध्यानरूपी जाज्वल्यमान अग्निमें उन्होंने अपने चार आत्माको डुबाने वाले घनघाति (ज्ञाना वरणो, दर्शना वरण', मोहनीय और अन्तराय) कर्मों को भरन कर दिया।
अब जिस ज्ञानके अभावसे दुनिया अन्धकारमें गोता खा रही है, जिस ज्ञानके अभावमें जनता मिथ्या रूढ़ियोंके वशीभूत संसारमें अनर्थ कर रही है, जिस ज्ञानके न होनेसे लोग ममत्व, भाया और तृष्णाके गुलाम बन रहे हैं, जिस ज्ञानके अभावमें सबल निर्वलोंका अन्यायपूर्ण हनन कर रहे हैं, जिस ज्ञानसे रहित संसार एक क्लेश कदागृह और बर्बरताका स्थान बन रहा है और जिस ज्ञानके अभावमें आत्मा अपने निज गुणोंको भूलके पर स्वभावमें रत होकर कभी शांति नहीं पाती, उसी ज्ञानकी प्राप्तिके लिए भगवान महावीरने कठिनस कठिन तपश्चर्या की, मरणांत कष्टोंको भी अपूर्व शांतिके साथ सहन किया आर उत्तमोत्तम भावनासे चार उक्त कथित घनघाति कर्माको समूल नष्ट करजम्बुक ग्रामके पास, रजुबालिका नदीके तीर, शालिवृक्ष के नीचे छठूतपयुक्त गोदुह आसन लगाये, शुक्ल ध्यानमें मग्न वैसाख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com