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जव अवसर्पिणी काल अपनी अन्तिम सीमा तक चला जाता है तब उत्सर्पिणी काल का उदय होने लगता है। इस प्रकार क्रमशः कालचक्र में उन्नति और अवन्नति हुआ करती है ।
जैन धर्म में प्रत्येक सर्पिणी के छै छै विभाग किये हैं। उत्सर्पिणी काल के छै भाग, जिन्हें 'आरे' भी कहते हैं इस प्रकार हैं:-(१) दुःखमा दुःखम् (२) दुःखम् (३) दुखमा सुखम् (४) सुखमा दुःखमा (५) सुखम् और (६) सुखमा सुखम् ।
इस काल का स्वभाव है कि यह दुःख की अवस्था में प्रवेश होकर क्रमशः उन्नति करता हुआ सुख की चरम सीमा तक पहुँच कर शेष हो जाता है और पश्चात् अवसर्पिणी काल आरंभ होता है। __अवसर्पिणी काल के छै विभाग (आरे) इस प्रकार हैं:(१) सुखमा सुखम् (२) सुखम् (३) सुखमा दुःखम् (४) दु:खमा सुखम् (५) दुःखम् (६) दुःखमा दुःखम् ।
इस काल का स्वभाव है कि वह सुखकी अवस्था में प्रवेश होकर दुःखकी चरम सीमातक पहुँचकर खतम हो जाता है और बाद में उत्सर्पिणो काल लग जाता है। इस प्रकार यह कालचक्र घूमता रहता है।
जैन शास्त्रनुसार उक्त दोनों कालों में चौवीस चौबीस तीर्थकर, वारा वारा चक्रवर्ती, नौ नौ बलदेव, नौ नौ वासुदेव अर्थात् नारायण और नौ नौ प्रतिवासुदेव अर्थात प्रतिनारायण होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक सर्पिणो काल में समय समय ६३ महान पुरुषों
की उत्पत्ति होती है। इन्हें 'वेषठ शलाके पुरुष ' कहते हैं । इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com