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नामक ब्राह्मणके यहां पारणा किया। वहां भी द्रव्यों की विपुल वर्षा हुई जिसे देख वहां के लोग चकित हो गये।
भिक्षा लेकर ज्याही गोशाला वहां आया तो उसे प्रभु न दिखे । वह व्याकुल हो उठा और प्रभुको ढूंढता हुआ वहीं
आपहुंचा जहां भगवान विराज मानथे । वह प्रभुस बोला भगवन् ! अवना आपपर मेरी पूर्ण श्रद्धा हो गई। अवतो मैं
आपका शिष्यत्व अंगीकार करता हूं। आजसे आप मर धर्म गुरु हुए 'अब मैं आपको छोडकर कहीं न जाऊंगा।' इस प्रकार गाशाला भगवानका आपसे आप शिष्य बन गया।
गोशाला भगवानका शिष्य तो बन गया था परन्तु वह सच्चा साधु न था । उसमें स्वार्थ, अक्षमता और क्रोध तो ज्यों के सों ही भरे हुए थे। रास्ते में विहार करते उसे एकदिन श्री पार्श्वनाथ स्वामीके समुदाय के चन्द्राचाय मुनिसे भेंट हो गई। गोशालाने उन्हें ढोंगी और धूर्त कहकर संम्बोधित किया और उनसे वादाविवाद करने लगा। विवाद बढ़ जाने के कारण क्रोधमें आकर उनके प्रति चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा 'हे वेषधारियो। जाओ तुम्हारा उपाश्रय इसी समय जलकर भस्म हो जाय ।' इसपर उन साधुओं ने गोशालाका समझाया कि 'तू साधु है । साधुको कभी भी क्रोध न करना चाहिये । उसे तो क्षमता धारण करनी चाहिये । साधुओंको तो क्रोध, लोभ और मोहसे सदा दूर रहना चाहिये । तरे इस शापसे न तो हमको अथवा हमारे उपाश्रयको कुछ हो सकता है परन्तु तेरे व्यर्थ कर्म बंधते हैं। पूर्वोपार्जित काँकी निर्जराके बदले तू तो उल्टे कर्म बांधता है यह साधुके लिये तो विलकुल ही अनर्थ का कारण है।' यह सुन गोशाला
वहांसे चल दिया और शीव्र भगवानके पास आगया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com