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________________ रूप लावण्य कन्याओं के साथ एक एक करके शालिभद्रके बत्तीस विवाह किये । अब तो शालिभद्र भांति-भांति के सांसारिक सुख भोगने लगे। यहांतक कि उन्हें सूर्य के उदय और अस्त होनेतकका भान न रहा। शालिभद्र तो इस तरह विषयों में आसक्त था और उस ओर सेठ गोभद्रने प्रभु दर्शनकी अभिलाषा प्रकट की । ज्योंही वे प्रभुदर्शन को गये और वहीं उन्हें वैराग्य हो पाया और दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षाके बाद शीघ्र ही उनके शरीरका निधन हो गया और चे स्वर्गस्थ हो गये। स्वर्गस्थ गोभद्र मुनिकी आत्माने संसारी पुत्र शालिभद्रकी पूर्व जन्मकी मुनिको खीरदानकी पुन्याई अवधि ज्ञानसे देखी और उसपर मोहित हो गयी । तब तो उस आत्माने अपने पुत्रके भंडार अपने दिव्य प्रभावसे भरना प्रारम्भ कर दिया ताकि उसके सुख की सामग्री सदैव परिपूरित रहे। इधर अपने वैधव्य विषाद से दुखी होनेपर भी, अपने प्राणप्रिय पुत्रके सुखोपभोगमें किसी तरह की कमी न हो इस कारण शालिभद्रकी माता भद्रा भी गृहस्थी के सारे कामकाज सम्हालने में व्यग्र रहने लगी और शालिभद्र अपने दिन सांसारिक सुख में बिताने लगे। एक दिन की बात है कि राजगृहीके राजा सम्राट श्रेणिक के दरवार में कुछ व्यापारी लोग पहुंचे और राजाको अपनी रत्नकम्मले दिखाई । मोल पूछनेपर व्यापारियोंने कहा कि राजन् ! कम्मलोंका मोल सवा सवा लाख सोनैया ( सोनेकी मोहर ) है और उनका गुण यह है कि रत्नजड़ित होनेपर भी जब ये मैली हो जाती हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034732
Book TitleAntim Tirthankar Ahimsa Pravartak Sargnav Bhagwan Mahavir Sankshipta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Vaidmutha
PublisherGulabchand Vaidmutha
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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