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कभी पक्षी और कभी प्रतिपक्षीकी हारजीतके निशान फरकने लगे, आखीर सिन्धपतिके दक्षवीरोंने गौर्जरोंपर अपनी छाया डालनी शुरू की । भीमदेवके सैनिक भागने लगे । ऐसी हालतको देख भीमदेवके चेहरेपर उदासीका प्रभाव पडना स्वाभाविक ही था ।
राजाने “विमल" सेनापतिकी तर्फ देखा, बस कहना ही क्या था ? विमलकुमारने अपनी विमलमति से अपने स्वामीकी विशद कीर्त्तिको दिगन्तगामिनी करनेके लिये खडे होकर महाराजको प्रणाम किया और अर्जुनके धनुष जैसे अपने धनुष को उठाया । विमलकुमारके धनुषटङ्कारको सुनते ही शत्रुओंका मद क्षीण होकर गौर्जर सैनिकोंका बल असंख्य गुना बढगया । सेनापति अपने अश्वरत्नपर सवार हो अपने कृतज्ञ सेवकोंको साथ लेकर मैदानमें आया ।
सिन्धुपतिभी अपने अखर्व अहंकारमें न समाता हुआ अपने ऐरावत जैसे पट्टहाथीको घुमाता हुआ मैदानमें आ पहुंचा । विमलकुमारकों अश्वारूढ सामने आये देखकर सिन्धुपतिने अभिमानमें आकर कहा - अरे बाल ! क्यों कुमौतसे मरता है ? संग्राम करना यह तुमारा बनियोंका काम नहीं, अफसोस है कि अभीतकभी " भीमदेव " अपने पद्मिनीत्रतको लेकर तंबुमें ही छिपा बैठा है !! |
विमलकुमारने कहा, सिन्धुराज ! मेरे स्वामी भीमदेवने पद्मिनीव्रत नहीं लिया किन्तु पुरुषोत्तम प्रतिज्ञा ले रखी है, वह अपने समानके क्षत्रियोंसे ही युद्ध करनेमें खुशी हैं !
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