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शुभ (अच्छे कार्य
के लिए
होता है)
जीव-विज्ञान
आहारक शरीर
+
विशुद्ध
(शुभ कर्म के कारण श्वेत वर्ण समचतुरस्र संस्थान)
व्याघात रहित
(ढाई द्वीप में न
किसी से रुकता है, न किसी को रोकता है)
(छठे गुणस्थानवर्ती किन्हीं ऋद्धिधारी मुनिराज को
ही होता है)
एक हाथ का, शुक्ल वर्ण का सुंदर पुतला निकलता है। यह क्यों निकलता है? जब उनके अंदर कोई तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हो जाए जिसका समाधान यहाँ पर कोई न कर सके। जिसका समाधान कोई भी विद्वान् कोई भी मनीषी न कर सके और केवल केवली भगवान या श्रुतकेवली के द्वारा ही किया जा सके। उस जिज्ञासा के कारण से उनके मस्तिष्क से एक हाथ का पुतला निकलता हैं। वह केवली भगवान के पास जाएगा और अपनी जिज्ञासा का समाधान करके पुनः उन महाराज के अंदर समा जाएगा। उससे मुनि महाराज को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होगी। उनकी जिज्ञासा शान्त हो जाएगी। यह आहारक शरीर का कार्य होता है। यह शुभ होता है, विशुद्ध होता है, अव्याघाती अर्थात् बाधा रहित होता है अथवा जहाँ तक इसे जाना है वहाँ तक जा सकता है। बीच में इसे कोई भी रोक नहीं सकता है। इस तरह से यह आहारक शरीर प्रमत्तसंयत नाम के छठवें गुणस्थान वाले मुनि महाराज को होता है।
लिंग (वेद) के स्वामी
नारक- सम्मूर्छिनो नपुंसकानि । । 50 ।।
अर्थ-नारकी और सम्मूर्छन जीव नपुंसक वेद (लिंग) वाले ही होते हैं ।
इस सूत्र में आचार्य कहते हैं- कुछ जीवों के अन्दर भाव, वेद के अनुसार आते हैं उन वेदों का कथन यहाँ किया जा रहा है। आचार्य कहते हैं- नारकी जीव और सम्मूर्छन जीव नपुसंक वेद वाले होते हैं। तीन प्रकार के वेद होते हैं यह आपने पिछले सूत्रों में पढ़ा था। औदयिक भावों में तीन लिंगों के बारे में आपने पढ़ा था । पुरुष वेद, स्त्री वेद और नपुंसक वेद । इसको वेद भी कहते हैं और लिंग भी कहते हैं। इस अध्याय में इन दोनों ही शब्दों का उल्लेख किया गया है। प्रारम्भ में औदयिक भावों को बताने वाले जो सूत्र आए थे, उस सूत्र में भी लिंग शब्द का ही प्रयोग था । यहाँ पर भी 'नपुंसकानि' ऐसा इस लिंग के साथ ही कहा है। ये दोनों शब्द संस्कृत में प्रयुक्त होते हैं और इन शब्दों के जो लिंग हैं वह भी अलग-अलग हैं। जैसे- लिंग शब्द जो होता है वह संस्कृत के अनुसार
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