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जीव-विज्ञान
लब्धिप्रत्ययं च।। 47 || अर्थ-वैक्रियिक शरीर लब्धि निमित्तिक भी होता है। तप विशेष से प्राप्त हुई ऋद्धि-विशेष को लब्धि कहते हैं।
आचार्य कहते हैं यह जो वैक्रियिक शरीर है वह लब्धि-प्रत्यय भी होता है। लब्धि का अर्थ है कि तप विशेष के द्वारा ऋद्धि से भी इस वैक्रियिक शरीर को प्राप्त कर लिया जाता है। वैक्रियिक शरीर का अर्थ है-अनेक प्रकार की विक्रियाएँ बना लेना। अगर विक्रिया शक्ति प्राप्त हो जाती है तो आदमी अपना मनचाहा रूप बना सकता है। जैसे-सिंह का, हिरण का, मोर का या किसी और रूप को बना सकता है।
आचार्य कहते हैंतैजसमपि।।48 ।।
निःसरण तैजस शरीर
शुभ *करुणा के कारण निकलता है।
दाहिने कंधे से निकलता है। * श्वेत वर्ण व शुभ आकृति का होता है। *रोग, मारी आदि को दूर करता है।
अशुभ * क्रोध के कारण निकलता है। * बायें कंधे से निकलता है। * सिन्दूरी वर्ण व बिलाव के आकार का होता है। * मन में रही विरुद्ध वस्तु एवं स्वयं को
भस्मीभूत करता है।
अर्थ-तैजस शरीर भी लब्धिनिमित्तक होता हैं।
आचार्य कहते हैं-तैजस शरीर भी तप से प्राप्त होता है। इस शरीर को भी वैक्रियिक शरीर की तरह तप से प्राप्त किया जा सकता है। आहारक शरीर के स्वामी व उसके लक्षण बताते हुए आचार्य कहते हैं
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ।। 49 ।। अर्थ-आहारक शरीर शुभ हैं, विशुद्ध हैं, व्याघातरहित हैं तथा प्रमत्तसंयत नाम के छठे गुणस्थाननवर्ती मुनि के ही होता है।
इस सूत्र में आहारक शरीर के विषय में बताया जा रहा है। यह आहारक शरीर किसको प्राप्त होता हैं? 'प्रमत्तसंयतस्यैव'-प्रमत्तसंयत छठवें गुणस्थान वाले मुनि महाराज को कहते हैं। उनके ही यह आहारक शरीर होता है। यह कब होता है?यह भी एक ऋद्धि होती है इसमें उनके मस्तिष्क में से
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