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जीव-विज्ञान
कुछ भी हो जाए। जब तक इस आत्मा ने शरीर से सम्बन्ध नहीं छोड़ा है तब तक वह आहारक ही रहेगा। इसलिए यहाँ पर कहा गया है 'अविग्रहा' अर्थात् विग्रह से रहित जो गति होगी वह एक समय की होगी और एक समय की अवधि में तो यह जीव आहारक ही बना रहेगा।
यह जीव अनाहारक कैसे होगा? उसके लिए आचार्य विग्रहगति में आहारक-अनाहारक व्यवस्था के विषय में कहते हैं
एकं द्वौ त्रीन्वाऽनाहारकः ।। 30।। अर्थ-विग्रहगति में जीव एक, दो अथवा तीन समय तक अनाहारक रहता है।
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक शरीर तथा छ: पर्याप्तियों के योग्य पूदगलों के ग्रहण करने को आहार कहते हैं। शरीर योग्य पुद्गलों के ग्रहण न करने को अनाहार कहते हैं। यहाँ कहते हैं कि एक समय के लिए अथवा दो समय या तीन समय के लिए यह जीव अनाहारक हो सकता है। जब एक गति को छोड़कर दूसरी गति में जाना होता है तो तीन समय से अधिक जीव के लिए अनाहारक की दशा नहीं बनती है। जैसे ही उसका अगली योनि में जन्म हुआ तब उसके आहार वर्गणाओं का ग्रहण हुआ और आहार लेना शुरू हो जाता है। समय क्या होता है? समय का मतलब जैन दर्शन में कहा गया है 'The Smallest Unit of Time' अर्थात् जिससे छोटा और कोई समय नहीं हो सकता उसी का नाम समय है। सैंकिण्ड का मतलब समय नहीं है। सैकिण्ड के कई नैनो सैकिण्ड हो जाते हैं। जिस क्षण का और कोई अंतिम टुकड़ा नहीं हो सकता उसका नाम ही समय है। एक समय तक, दो समय और तीन समय तक ही यह जीव अनाहारक रहेगा तत्पश्चात् वह जीव आहारक हो जाएगा। आप को जो विग्रह वाली गति बताई गई है उसमें जो पाणीमुक्ता वाली गति थी उसका नियम यह है कि पाणीमुक्ता वाली गति में जब यह जीव एक मोड़ लेगा तो एक समय तो वह जीव अनाहारक होगा और दूसरे समय में वह आहारक हो जाएगा। दो मोड़े वाली गति हो तो दो समय वह अनाहारक रहेगा, तीसरे समय में वह आहारक हो जाएगा। तीन मोड़े वाली गति होगी तो तीन समय तक वह अनाहारक रहेगा, चौथे समय में वह आहारक हो ही जाएगा। यह सिद्धान्त है, इसलिए तीन समय से ज्यादा कोई जीव अनाहारक नहीं रहता। क्योंकि वह किसी न किसी स्थान पर जन्म लेकर शरीर को ग्रहण कर लेता है। इस आत्मा को नया शरीर धारण करने में अधिक से अधिक तीन समय ही लगते हैं। जैन सिद्धान्तों को पढ़ने के बाद भी लोग ऐसी-ऐसी बातें करते हैं कि हमारी पिताजी की आत्मा भटक रही है, हमारी दादी की आत्मा भटक रही है, उनकी आत्मा हमें परेशान कर रही है। ऐसी व्यर्थ की बातें सिर्फ उन्हें आती है जिन्होंने या तो जैनदर्शन को पढ़ा नहीं है या उन्हें इस पर विश्वास नहीं है। आचार्य कहते हैं किसी की आत्मा कैसे भटक सकती है जब उसे अधिक से अधिक तीन समय तो दूसरा शरीर ग्रहण करने में लगता है। वह भी उनके लिए जो एकेन्द्रियादि जीव है जिन्हें लोक के एकभाग से दूसरे भाग में जाने में एक या दो समय ही लगते हैं। एक समय या दो समय में ही दूसरा जन्म हो जाता है। आत्मा को तो भटकना कहीं है ही नहीं। इसलिए अपनी सोच
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