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जीव-विज्ञान
एक रोगी ऐसा सामने आया जिसकी आँखों में जो पानी बनने वाली ग्रंथि होती है, उसमें पानी नहीं बन रहा था। डॉक्टर ने कहा इसका कोई इलाज नहीं है। अब जो भीतर से रचना नहीं हो रही है, जो भीतर से स्राव नहीं हो रहा है, उसको कोई भी डॉक्टर उत्पन्न कर नहीं सकता । जितने भी ऑप्रेशन होते है वे लगभग उपकरणों की संभाल तक ही होते हैं। आँख का पर्दा, रेटीना इत्यादि जो कुछ भी बिन्दु हैं, वे सभी बाह्य उपकरण ही कहलाते हैं। इन उपकरणों की देखभाल करने के लिए भी ऊपर के कुछ उपकरण होते हैं। जैसे- हमारी पलकें होती है। ये पलकें भी हमारी आँखों की रक्षा करती हैं। कभी भी आपको तेज हवा का झोंका लगेगा तब आपकी आँखें तुरन्त बंद हो जाएंगी। कभी भी आपकी आँखों में धूल जाएगी तो आपकी पलकें बन्द हो जाएंगी। फिर भी आप सतर्क नहीं रह पाए तो आपकी आँखों में धूल जा सकती है। बचाव करने के लिए ये उपकरण हमेशा तैयार रहते हैं। इन्हीं उपकरणों को द्रव्येन्द्रिय के रूप में कहा गया है।
जैसे- हमने नेत्र इन्द्रिय की रचना समझी, उसी तरह हमें कर्णेन्द्रिय की रचना भी समझनी चाहिए। यह कान जो हमें बाहर से दिखाई दे रहा है, यह कान नहीं है यह तो उसका बाहरी उपकरण है । कान तो अन्दर है। जहाँ हमारे शब्द टकराते हैं उस पर्दे पर, जहाँ पर हमें ज्ञान होता है वह उस अभ्यंतर उपकरण के रूप में है। जो हमें बाहर से दिखाई दे रहा है, यह उसका बाहरी उपकरण है।
इनके भी दो-दो भेद हैं। पहली है अभ्यंतर निर्वृत्ति और दूसरी का नाम है बाह्य निर्वृत्ति । इसके बाद एक अभ्यंतर उपकरण और दूसरा बाह्य उपकरण है। डॉ. की चिकित्सा अभ्यंतर और बाह्य उपकरण तक ही सम्भव है। ऐसा प्रतीत होता है कि निर्वृत्ति तक भी उनकी चिकित्सा सम्भव नहीं होती है। इस तरह पाँचों ही इन्द्रियों में द्रव्येन्द्रियां होती हैं । इस द्रव्येन्द्रिय की रचना के पीछे भी एक बहुत बड़ी रचना है। जिसका नाम भावेन्द्रिय है । भावेन्द्रिय तक तो कोई भी साइंस या मशीन नहीं पहुँच सकती है।
आचार्य आगे के सूत्र में भावेन्द्रिय का स्वरूप कह रहे हैं
लब्ध्युपयोग भावेन्द्रियम् । । 18 ।।
अर्थ-लब्धि और उपयोग को भावेन्द्रिय कहते हैं ।
भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की हैं। एक लब्धि कहलाती है और दूसरा उपयोग कहलाता है। लब्धि से तात्पर्य है जो हमें ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुआ है उसे लब्धि कहते है । 'किस जीव को कितनी इन्द्रियाँ प्राप्त होगी - इस बात की पूरी की पूरी तैयारी उस आत्मा में प्राप्त हुए कर्म के क्षयोपशम से होती है। वह आत्मा किस नामकर्म के उदय को प्राप्त कर रहा है। त्रस बन रहा है या स्थावर बन रहा है। त्रसों में भी वह दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय या चार इन्द्रिय बन रहा है । उसमें भी जो इन्द्रियाँ उत्पन्न हो रही हैं- उनके ही अनुसार उनका क्षयोपशम होगा । चार- इन्द्रिय नामकर्म के उदय के साथ होगा तो उसके अंदर चार इन्द्रियों का ही क्षयोपशम होगा। उतनी ही उसको उपलब्धि
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