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जीव-विज्ञान
विषयगत शंकाएँ किंचित भी अवशेष नहीं रह जाती।
मुनिवर ने सूत्रों को प्रवचनात्मक रूप में उजागर करते हुए आधुनिक विज्ञान (Science) की मान्यता को उनके समक्ष रखकर दोनों का पारस्परिक मूल्यांकन भी यत्र-तत्र किया है। उदाहरण के लिए-आलोच्य अध्याय (13वें सूत्र) में एकेन्द्रिय जीव पंचविध अंकित है। (1) पृथ्वीकायिक, (2) जलकायिक, (3) अग्निकायिक, (4) वायुकायिक, (5) वनस्पतिकायिक। आज विज्ञान (Science) ने वनस्पति व जल को सप्राण (जीव) स्वीकार कर लिया है। विज्ञ मुनिराज ने एतद्विषयक प्रवचन में कहा है - पृथ्वीकायिक आदि भी जीव है यह विज्ञान (Science) आज तक सिद्ध नहीं कर पाया
अतः कहा जा सकता है कि जैन-विज्ञान के समक्ष आधुनिक विज्ञान बौना पड़ गया है। इस प्रकार के विविध प्रसंग मुनिवर के प्रवचनों में द्रष्टव्य और ज्ञातव्य हैं।
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द्वितीय अध्याय का श्रीगणेश जीव के भावों की विवेचना से होता है जिसकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्ररूपणा को मुनिश्री ने सुबोधगम्य बनाया है। वस्तुतः जिनेन्द्र भगवान के केवलज्ञान में प्रत्येक जीव की त्रिकालवर्ती पर्यायें व उनके समग्र भाव दर्पणवत् झलकते हैं। उसी दिव्य ज्ञान के अनुसार 'तत्त्वार्थसूत्र' में जीव के पंचविध भावों तथा उनके 53 भेद-प्रभेदों को समझाते हुए मुनिश्री प्रणम्यसागर जी ने सोदाहरण सिद्ध किया है कि जीव के कर्म उनके सद्-असद् भावों की आधारशिला पर जन्म लेते हैं। जिनके अनुसार जीवों को शुभ-अशुभ फल भोगना पड़ता है। इसी संदर्भ में मुनिवर ने उद्घोषणा की है-'जीव का जो भीतरी विज्ञान (भाव) है वह कर्मों के साथ सम्बन्ध रखते हुए किस प्रकार से चलता है-यह हमें जैनदर्शन ही पढ़कर समझ में आयेगा' अन्यत्र उसका ज्ञान अपेक्षित नहीं है। अलोच्य अध्याय को मुनिश्री ने 'जीवविज्ञान' संज्ञापित किया है जो सर्वथा सार्थक व औचित्यपूर्ण है। क्योंकि इस अध्याय में जीव का लक्षण, जीव के प्रकार, उनका उद्भव, पुर्नभव से पूर्वगमन (गति), पुर्नजन्म के गर्भ व जन्म के भेद, शरीर के प्रकार, विविध योनियाँ, लिंग विधान, निवास, आयु आदि गहन-चिन्तात्मक विवेचित है। जिससे ज्ञात हो जाता है कि आज के जन्तु-विज्ञान (Zoology), जीव विज्ञान (Biology) शारीरिक विज्ञान (Physical science) की उपलब्धियों से 'तत्त्वार्थसूत्र' के कदम बहुत अग्रेसरित है। मेरी दृष्टि में 'तत्त्वार्थसूत्र' आगम जैन धर्म का इन्साइक्लोपीडिया (Encyclopaedia) है। मुनिराज श्री प्रणम्यसागर जी की अवधारणा है - 'जैनधर्म को समझने के लिए यह 'तत्त्वार्थसूत्र' एक कुंजी है।