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जीव-विज्ञान
लोग इस असहाय शब्द को किस रूप में लेते हो? जिसकी कोई सहायता करने वाला न हो वह असहाय है। आचार्य कहते हैं जिसको किसी की सहायता की आवश्यकता न पड़े वह असहाय है । केवलज्ञान को असहाय कहा गया है। आप असहाय उसे कहते हैं जो बेचारा होगा, जिसके ऊपर आपको दया आ रही होगी, कहने में आ भी जाता है कि बेचारा असहाय पड़ा है। यह शब्द आचार्यों ने केवलज्ञान के लिए दिया । केवलज्ञान कैसा है ? असहाय है, उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं है। यहाँ तक कि अपनी इन्द्रियाँ, अपना मन और किसी भी बाह्य वातावरण की जरूरत नहीं है । जो बिना किसी सहायता के स्वतन्त्रता के साथ रहता है और प्रत्येक वस्तु को जानता देखता रहता है उसे केवलज्ञान कहते हैं, मुक्त जीव कहते हैं। ऐसे इन जीवों में यह परिणमन होता है। इन सूत्रों से हमें यह सीखना चाहिए ।
कभी आपसे कोई प्रश्न करे कि मुक्त जीवों में क्या होता है? तो कहना उनमें केवल ज्ञानोपयोग होता है, केवल दर्शनोपयोग होता है। उसके माध्यम से वह बिल्कुल निर्विकल्प मोह, राग, द्वेष से रहित होकर उन अनन्त पदार्थों को जानते हैं देखते हैं । वे वहाँ जाकर भी बिल्कुल निष्क्रिय नहीं हो गए हैं। क्योंकि निष्क्रिय का अर्थ होता है- कुछ करना ही नहीं। वह उपयोग की क्रिया वहाँ पर भी चल रही है, वहाँ पर भी क्रियावान है। वह क्या क्रिया कर रहे हैं? वे जानने और देखने की क्रिया कर रहे हैं। इस क्रिया में ही वह आनन्दित रहते हैं। आत्मा का यह स्वाभाविक परिणाम है। इसी को उपयोग और चैतन्य भाव कहा जाता है। इस प्रकार से ये मुक्त जीव होते हैं।
आचार्य कहते हैं कि दो ही प्रकार के जीव होते हैं या तो वे मुक्त होते है या संसारी होते हैं। यहाँ पर जो च शब्द आया है, "संसारिणो मुक्ताश्च" इस च का अर्थ है कि कुछ ऐसे भी जीव हैं जो न अभी पूर्णरूप से संसारी हैं और न मुक्त जीव हैं। ऐसे भी कुछ जीव होते हैं वह इस, "च" शब्द से ले लेना । वे कौन होते हैं? जो संसार में रहते हैं वे संसारी हो गए और जो संसार से मुक्त हो गये वह सिद्ध हुए। इनमें भी कुछ बीच के लोग हैं जो न अभी मुक्त हुए हैं और न ही संसारी है। उनको अरिहंत भगवान कहते हैं। अरिहंत आत्माएं हैं वह च शब्द से लेना। न तो ये संसारी हैं क्योंकि संसार जैसे इनके परिणमन नहीं हैं और न ही ये अभी सिद्धत्व को प्राप्त हुए हैं। पिछले सूत्र में आपको बताया था असिद्धत्व भाव उनके अंदर पड़ा हुआ है, औदयिक भाव का वे वेदन करेंगे। जब तक सिद्ध नहीं बनेंगे तो मुक्त जीव भी नहीं होंगे अर्थात् उन्होंने अभी सिद्धत्व को प्राप्त नहीं किया है और संसार में हैं, संसारी जैसे भी नहीं हैं। संसारी जीवों की तरह उनका मन काम नहीं करता। मन, वचन, काय की कोई क्रियाएं संसारी जीवों जैसी नहीं होती। उनको संसारी जीवों की तरह मोह, राग, द्वेष का कोई परिणाम नहीं होता है। इसलिए वह संसारी भी नहीं है। इसलिए ऐसे जीव जीवनमुक्त कहलाएंगे जो न संसारी हैं और न मुक्त है। इनके अतिरिक्त और भी जो संसारी जीवों के भेद उपभेद आदि है उसे भी इस च शब्द से समझ लेना ।
आगे के सूत्र में आचार्य संसारी जीव के भेद कहते हैं
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