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जीव-विज्ञान
भ्रान्तियाँ है। जितने भी निर्णय करना, संशय, विपर्यय ये सभी ज्ञान में होंगे, इनसे मुक्त होना भी ज्ञान
होगा । दर्शन निर्विकल्प होता है। इसीलिए आचार्यों ने कहा है-दर्शन निराकार होता है, निर्विकल्प होता है और ज्ञान विकल्प करता है । उस ज्ञान को विकल्प कराने के अनेक भेद होते हैं। पाँच प्रकार के ज्ञानोपयोग हैं-मतिज्ञानोपयोग, श्रुतज्ञानोपयोग, अवधिज्ञानोपयोग, मन:पर्ययज्ञानोपयोग और केवलज्ञानोपयोग। इन पाँचों प्रकार के उपयोगों में से कोई न कोई ज्ञान का उपयोग एक समय पर बना ही रहेगा। यदि संसारी प्राणी हैं तो उसके पास मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होगा और इन दोनों उपयोगों में से एक उपयोग अवश्य चलता रहेगा ।
जब अवधिज्ञान हो जाएगा तो एक उपयोग और बढ़ जाएगा, मन:पर्यय होने पर एक और बढ़ जाएगा और जब केवलज्ञान हो जाएगा तो पिछले वाले सारे हट जाएंगे और केवल एक ही रह जाएगा। केवलज्ञान के साथ में दूसरे उपयोग रहते भी नहीं है और कार्य भी नहीं करते हैं। अन्य जीवों के लिए वह उपयोग साथ में रह तो सकते हैं लेकिन कार्य एक ही करेगा। मतिज्ञान होगा तो श्रुतज्ञान कार्य नहीं करेगा और श्रुतज्ञान होगा तो मतिज्ञान अपना कार्य नहीं करेगा। इसमें भी दर्शनोपयोग में से एक होगा। चार प्रकार के दर्शनोपयोग हैं। चक्षुदर्शनोपयोग, अचक्षुदर्शनोपयोग, अवधिदर्शनोपयोग और केवलदर्शनोपयोग। जिस समय दर्शनोपयोग कार्य करेगा उस समय ज्ञानोपयोग कार्य नहीं करेगा, जिस समय ज्ञानोपयोग कार्य करेगा उस समय दर्शनोपयोग कार्य नहीं करेगा। एक समय पर एक ही क्रिया होगी। ज्ञानोपयोग में भी जिस समय पर मतिज्ञान कार्य करेगा तो उस समय पर श्रुतज्ञान कार्य नहीं करेगा। ऐसे आत्मा के अंदर एक समय में एक ही क्रिया चलती है एक ही प्रकार का उपयोग चलता है और वह अर्न्तमुहूर्त तक प्रत्येक उपयोग चलता है। अर्न्तमुहूर्त भी छोटा-बड़ा कई प्रकार का होता है, तो एक अन्तमुहूर्त तक यह कार्य करेगा और अपने आप यह बदल जाएगा। इस तरह से यह उपयोग की क्रिया अनादि से अनवरत कर्मों के कारण चलती आ रही है। ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग, दर्शनोपयोग - ज्ञानोपयोग, ज्ञानोपयोग - दर्शनोपयोग इस तरह से यह क्रम चलता ही रहता है। इस क्रिया से आत्मा को कभी विराम नहीं मिलता है। इसे विराम तब मिलेगा जब यह केवलज्ञानी बन जाएगा। जब दोनों उपयोग एक साथ होंगे। आत्मा को कोई भी क्रिया बाहर के निमित्त से करनी नहीं पड़ेगी वह अपने आप स्वाभाविक होगी, उस समय इस आत्मा का ज्ञानोपयोग बिल्कुल शान्त हो जाता है। कब हो जाता है? जब वह केवलज्ञानोपयोग रूप में ढल जाता है। उस समय आत्मा में ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं, क्रमशः नहीं होते हैं। क्रमशः कब तक होंगे? जब तक इसको केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। केवलज्ञान होने पर एक साथ देखना और एक साथ जानना-यह उपयोग होगा और सब प्रकार के ज्ञान रखते हुए भी कोई मोह, राग, द्वेष नहीं होता है। क्योंकि मोहराग ही आत्मा के ऊपर बोझ डालते हैं । केवलज्ञानी इनसे उभर गए हैं। इसलिए वह जानते तो सभी को हैं लेकिन उन्हें कभी किसी से टेंशन नहीं होता है। क्या समझ आया?आप जानते हो तो टेंशन क्यों करते हो? क्योंकि आप 'तुम्हारा - हमारा' करके जानते हो, उसके बिना जान ही नहीं सकते। आपके जानने में टेंशन का यह कारण है । केवलज्ञानी सब जानते
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