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श्री जैन इतिहास ज्ञानभानुकिरण नं. २५
श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरपादपद्मेभ्यो नमः खरतरमतोत्पत्ति-भाग चौथा
खरतरमतोत्पत्ति भाग १-२-३ आपकी सेवा में उपस्थित कर दिये थे। जिनको आद्योपान्त पढ़ने से आपको ठीक विदित हो गया होगा कि खरतर मत की उत्पत्ति उत्सूत्र से ही हुई है और जो व्यक्ति एक उत्सूत्र भाषण करता है उसको और किस किस प्रकार अनर्थ करने पड़ते हैं ? जैसे व्यापारी लोग बदनीयती से अपनी एक बही से निकालते हैं तब उसको और भी कई बहियों से पन्ना निकाल कर रद्दोबदल करना पड़ता है, यही हाल हमारे खरतर भाइयों का हुआ है, जिसके लिये यह चतुर्थ भाग आपके कर कमलों में रक्खा जाता है, जिसको पढ़ने से आपको अच्छी तरह से रोशन हो जायेगा कि इन उत्सूत्रवादियों ने जैनधर्म में परम्परा से चली आई क्रिया समाचारी में कैसे एवं किस प्रकार रद्दोबदल करके बिचारे भद्रिक जीवों को उन्मार्ग पर लगा कर संसार के पात्र बनाये हैं।
१. नमस्कार मंत्र १. श्रीभगवतीजी आदि सूत्रों के मंगलाचरण में "नमो अरिहन्ताणं" कहा है और सब गच्छों वाले 'नमो' ही बोलते हैं पर खरतरे ‘णमो अरिहन्ताणं' कहते एवं लिखते हैं। नमो और णमो का अर्थ तो एक ही होता है, पर और गच्छवाले करें वैसे खरतर नहीं करते हैं। यह एक उनका हठ ही है।
२. स्थापनाचार्य १. जब श्रावक सामायिकादि धर्म-क्रिया करते हैं तब उस समय पुस्तकादि की स्थापना करते हैं और पंचेंदिया की दो गाथा कहकर आचार्य के ३६ गुणों की स्थापना करते हैं तब खरतर तीन नवकार कहते हैं।
२. वर्तमान शासन के आचार्य सौधर्मगणधर हैं और उनकी ही स्थापना की जाती है पर खरतरे स्थापना पंच परमेष्ठी की करते हैं। यह गलत है क्योंकि क्रिया गुरु आदेश से की जाती है।
३. आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने स्थापना कुलक में स्थापनाचार्य के लक्षण कहे हैं वह स्वाभाविक स्थापनाजी में ही होते हैं। पर खरतरे चन्दन के स्थापनाजी