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इस रास में बादशाह मानसिंह ( जिनसिंहसूरि) को बुलाता है और मानसिंह बीकानेर से रवाना हो आगरे जा रहा है। मेड़ता में एक मास ठहर कर विहार किया, एक मुकाम पर जाते ही उसकी काल से भेंट हुई, अतः वापिस मेड़ते आकर स्वयं संथारा (अनशन) करके काल को प्राप्त हुये । बात दोनों की मिलती जुलती है, शायद खरतरों ने गुरुभक्ति के कारण कुछ बात को सुधार के लिखी हो तो यह उनकी गुरुभक्ति प्रशंसनीय कही जा सकती है ।
दूसरी बात बादशाह का हुक्म अपने राज से सेवड़ों ( खरतर मतियों) को निकाल देने का था । तब खरतरों के रास में लिखा मिलता है कि मानसिंह (जिनसिंहसूरि) के पट्टधर जिनराजसूरि आगरे गये और यतियों का विहार खुल्ला
करवाया ।
"अन्ये कितरेक देशे यति रै न सकते ते पण तिंवारे पच्छि रैता थया ।" अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर वालों का लेख जैन सत्यप्रकाश वर्ष ३, अंक ४, पृष्ठ १३५ । उपरोक्त शब्दों से यह सिद्ध हो सकता है कि जिनसिंह के समय खरतर यतियों का विहार बन्द हुआ था । वह विहार जिनराजसूरि के समय वापिस खुला होगा । 'तुजुक जहांगीरी' का हिन्दी अनुवाद मुद्रित हुये को आज ३४ वर्ष हो गुजरे हैं जिसमें किसी खरतर ने इसका विरोध नहीं किया । शायद उनको ऊपर दिये हुये दो प्रमाणों का ही भय होगा । खैर ! खरतरों के यति ऐसे ही थे और उन्होंने लज्जा के मारे ऊंचा मुंह नहीं किया पर जैन समाज को तो इस बात का सख्त विरोध करना था। क्या जैन भाई घर के घर में ही जंग मचाना जानते हैं कि थोड़ी थोड़ी बातों में जंग कर बैठते हैं ? परन्तु ऐसे आक्षेप करने वालों के सामने चूं तक भी नहीं करते हैं, क्या अब भी जैन समाज में जीवन है कि वे इसका कुछ प्रतिकार करे ?
मंत्री कर्मचन्द वच्छावत
मंत्री कर्मचन्द जैन समाज में प्रख्यात मुशदियों में एक है। आपके जीवन के विषय में कई खरतर यतियों ने रास वगैरह भी लिखे हैं क्योंकि ख. यतियों की इन पर पूर्ण कृपा थी । यही कारण है कि ख. यतियों के षड्यंत्र में इनका सहयोग रहता था। अत: कई ऐतिहासिक पुस्तकों में खर यतियों के साथ साथ मन्त्री कर्मचन्द पर भी ऐसे ऐसे लांछन लगाये गये हैं कि जिसको पढ़कर जैन समाज को दुःख हुये बिना नहीं रहता है पर बिचारा जैन समाज इसके लिये कर भी तो क्या सके? क्योंकि यह तो केवल घर शूरा अर्थात् घर के घर ही लड़ना