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रच कर उनको नुकसान पहुँचाने के मिथ्या प्रयत्न किये थे। जैसे विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी में खरतरमत में एक मानसिंह नाम का साधु था जो जिनसिंहसूरि नाम से कहलाया जाता था तथा वह अपने को ज्योतिष-विद्या में प्रवीण होना भी कहता था। उस मानसिंह ने बादशाह जहाँगीर के लिये एक ऐसा षड़यन्त्र रचा कि जिसके लिये बादशाह जहाँगीर को उसके विरुद्ध एक कठोर फरमान निकालना पड़ा । इतना ही क्यों पर बादशाह ने अपने राज में आने की भी मनाई कर दी थी। इन सब बातों को स्वयं बादशाह ने अपनी 'तुजुक जहाँगीरी' नामक किताब में लिखी थी जिसको मुन्शी देवीप्रसादजी जोधपुर वालों ने हिन्दी अनुवाद कर 'जहागीर नामा' नाम से ई. स. १९०५ में छपवाया है। वह किताब जोधपुर में मिलती है तथा इस समय मेरे सामने मौजूद भी है। उस किताब के पृष्ठ ३०९ पर निम्नलिखित लेख मुद्रित है। जिसको पढ़ने से पाठक स्वयं सोच लेंगे कि एक गन्दी मछली तमाम समुद्र को कैसे गन्दा बना देती है अर्थात् एक कुलकलंक कुपात्र के जरिये शासन पर किस प्रकार कलंक लगता है।
__ मानसिंह सेवड़ा "बादशाह लिखता है कि सेवड़े हिन्दू नास्तिकों में से हैं जो सदैव नंगे सिर और नंगे पांव रहते हैं। उनमें कोई तो सिर और दाढ़ी मूछ के बाल उखाड़ते हैं और कोई मुंडाते हैं। सिला हुआ कपड़ा नहीं पहनते । उनके धर्म का मूलमन्त्र यह है कि किसी जीव को दुःख न दिया जावे । बनिये लोग इनको अपना गुरु मानते हैं, दण्डवत करते हैं और पूजते हैं। इन सेवड़ों के दो पंथ हैं। एक तपा दूसरा करतल (खरतर )। मानसिंह करतर वालों का सरदार था और बालचन्द तपा का । दोनों सदा स्वर्गवासी श्रीमान् की सेवा में रहते थे। जब श्रीमान् के स्वर्गारोहण पर खुसरो भागा और मैं उसके पीछे दौड़ा तो उस समय बीकानेर का जमीदार रायसिंह भुरटिया जो उक्त श्रीमान् के प्रताप से अमीरी के पद को पहुंचा था, मानसिंह से मेरे राज्य की अवधि और दिन दशा पूछता है और वह कलजीभा जो अपने को ज्योतिष विद्या और मोहनमारण और वशीकरणादि में निपुण कहा करता था उससे कहता है कि इसके राज्य की अवधि दो वर्ष की है। वह तुच्छ जीव उसकी बात का विश्वास करके बिना छुट्टी ही अपने देश को चला गया। फिर जब पवित्र परमात्मा प्रभु ने मुझ निज भक्त को अपनी दया से सुशोभित किया और मैं विजयी होकर राजधानी आगरे में उपस्थित हुआ तो लज्जित होकर सिर नीचा किये हुए दरबार में आया । शेष वृत्तान्त उसका अपनी जगह पर लिखा जा