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सकते हो कि आज दुनिया में सैंकड़ों धर्म प्रचलित हैं जिसमें कई ऐसे भी धर्म हैं कि जिनको खरतर भाई भी मिथ्या धर्म मानते हैं वे सैंकड़ों हजारों वर्षों से अविच्छिन्न रुप में चले आते हैं। उनकी वृद्धि एवं मानने के लिए लाखों करोड़ों आदमी उनको मानते भी हैं फिर भी सत्य की कसौटी पर कसने से वे मिथ्या धर्म ही साबित होते हैं। अतः केवल किसी मत की वृद्धि एवं उसको हजारों लाखों आदमियों के मानने मात्र से ही सत्यता नहीं कही जाती है। आप दूर क्यों जावें खास जैनों में ही देखिये एक दिगम्बर समुदाय है जिसको हमारे खरतर मत वाले जैन सिद्धान्त से खिलाफ समझते हैं उनको भी लाखों मनुष्य मानते हैं, वैसे ही लोंकामत एवं ढूंढिया मत को भी समझ लीजिये कि उन्होंने बिना गुरु मत निकाला वह आज तक चल ही रहे हैं और करीब दो तीन लाख मनुष्य उनको पूज्यदृष्टि से भी देखते हैं। इसी माफिक खरतर मत को भी समझ लीजिये, फिर भी यह कहना पड़ता है कि खरतरों ने तो करोड़ों को जैन संख्या से थोड़े से अनभिज्ञों को भगवान महावीर के छ: कल्याणक मनाकर तथा स्त्रियों को जिनपूजा छुड़ाकर अपने अनुयायी बनाये पर लोंका-ढूढ़ियों ने तो लाखों जैनों से ही दो तीन लाख मनुष्यों को मूर्तिपूजा छुडाकर अपने अनुयायी बना लिये। बतलाइये इसमें विशेषता खरतरों की है या दूढ़ियों की? अतः आप समझ सकते हो कि मत चलने में तथा उसको बहुत मनुष्य मानने मात्र से ही सत्यता नहीं समझी जाती है। अतः मेरे पूर्व प्रमाणों से स्पष्ट सिद्ध हो गया है कि जिनवल्लभ का 'विधिमार्ग' और जिनदत्त के खरतरमत ने उत्सूत्रभाषण से जन्म लिया है और कदाग्रह से ही यह आज पर्यन्त जीवित रहा है।
प्रश्न-कई लोग यह भी कहते हैं कि यदि जिनदत्तसूरि आदि आचार्य उत्सूत्र प्ररुपक होते तो ग्राम ग्राम उनकी छत्रियें, पादुकाएं, मूतियें और दादाबाड़ियें क्यों बनतीं तथा तीर्थंकरों के मन्दिरों में उनकी पादुका क्यों होती?
उत्तर-दादाजी ने अपने गुणों से पूजा नहीं पाई थी। उन्होंने अपने पर उत्सूत्र प्ररुपणा के कलंक को छिपाने के लिये एक जाल रच कर ऐसा जघन्य काम किया था, वरना इनके पूर्व सैकड़ों हजारों आचार्य हुए थे, पर किसी ने अपने हाथों से अपनी मूर्तियें एवं पादुकायें पुजवाने की कोशिश नहीं की थी। देखिये जिनदत्तसूरि के थोड़े ही वर्षों बाद आंचलगच्छ में एक धर्मघोषसूरि नाम से आचार्य हुए, उन्होंने अपने शतपदी नामक ग्रन्थ में जिनदत्तसूरि के लिये लिखा है कि :
१. श्राविका स्त्रियों ने पूजा नो निषेध कर्यो। २. लवण (निमक) जल, अग्नि में नोखवू ठेराख्यो।