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निषेध की मिथ्या प्ररुपणा करे तो आप उसको संघ बाहर कर दें। यहां का संघ आपके सम्मत है इत्यादि।
जब जिनदत्त जावलीपुर में पहुँचा तो वहां के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिनदत्तसूरि को तो पाटण में देखा था, आज यहां कैसे आ गये? इस शंका के निवारणार्थ श्रीसंघ के अग्रेसरों ने जाकर जिनदत्त से पूछा तो उत्तर दिया कि मैं औष्ट्री विद्या से आया हूँ। पहले तो लोगों ने समझा कि औष्ट्री कोई विद्या होगी, पर बाद में पाप का घड़ा फूट गया और लोगों को मालूम हो गया कि जिनदत्त ऊंट पर सवार होकर आया है। उस समय तार या डाक का साधन नहीं था कि एक प्रान्त के समाचार दूसरे प्रान्त में जल्दी ही पहुंच जाय, फिर भी लोगों ने पता लगा ही लिया।
जिनदत्तसूरि कई दिन तो चुपचाप रहा, पर बाद तो आपने अपनी प्रकृति का परिचय देना शुरु किया अर्थात् स्त्रियों को जिनपूजा निषेध करना शुरु किया । पर जावलीपुर का श्रीसंघ इतना भोला नहीं था कि जिनदत्त की उत्सूत्र प्ररुपणा को मान कर अपना अहित करने को तैयार हो। जब संघ अग्रेसरों ने जिनदत्त से पूछा कि किसी शास्त्र में स्त्रियों को जिनपूजा करना निषेध किया है ? उत्तर में जिनदत्त ने अपनी खर प्रकृति के परिचय के अलावा कुछ भी प्रमाण नहीं बतलाया। अतः लोग जिनदत्त की खर प्रकृति के कारण खरतर कहने लगे। बस, वहां के श्रीसंघ ने जिनदत्त को कहा अरे ये तो खरतर तो खरतर ही निकला। इस प्रकार कह कर संघ बाहर कर दिया। जिनदत्त के मत का नाम चामुण्ड तो पहले ही था। ऊंट पर सवार होने से लोगों ने इस मत का नाम औष्ट्रीक मत रख दिया और तीसरा खरतर नाम भी इस जिनदत्त के कपाल में ही लिखा हुआ था कि लोगों ने जिनदत्त के मत को खरतर मत कहना शुरु कर दिया। यह इनकी खरतर प्रकृति का ही द्योतक था। जिनदत्तसूरि जैसे चामुण्ड और औष्ट्रीक नाम से खीजता एवं क्रोध करता था, वैसे ही खरतर नाम से भी सख्त नाराज होता था। कारण, यह नाम भी अपमानसूचकता ही था। इस प्रकार इस मत के क्रमशः तीन नामों की सृष्टि पैदा हुई थी जिसमें खरतर नाम आज भी जीवित है।
जैन धर्म में मूर्तिपूजा का निषेध सबसे पहले जिनदत्तसूरि ने ही किया है,
१. "जिणपूआ विग्घकरो हिंसाईपरायणो जयदि विग्यो ।
जिनपूआ विघ्नकारो यज्ञपात की प्रवचन उपधानि ॥" २. उष्ट्रवाहनारूढौ पत्तनाज्जवालीपुरं प्राप्तः ।
प्र. प., पृष्ठ २६८