________________
८१
wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww
प्रश्न-जब सम्वत् १२०५ में जिनशेखर आचार्य हुआ तब बाबू पूर्णचन्द्रजी सम्पादित शिलालेख खण्ड तीसरा पृष्ठ १२ पर एक शिलालेख में वि. सं. ११४७ में खरतरगच्छीय जिनशेखरसूरि ने मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाइ लिखा है।
उत्तर-यह लेख जाली है, कारण ११४७ में न तो जिनशेखर सूरि बना था न खरतर शब्द का जन्म ही हुआ था, न जिनशेखर सूरि खरतर ही था और न इस शिलालेख की मूर्ति ही जैसलमेर में है। इसकी आलोचना प्रथम भाग में कर दी गई है। खरतरों ने खरतर शब्द की प्राचीनता साबित करने को यह जाली लेख छपाया है, परन्तु इतनी अक्ल भी तो खरतरों में कहाँ है कि कल्पित लेख लिखने के पूर्व उसका समय तो मिला लेते, जैसे जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ और खरतर बिरुद का समय खरतरों ने वि. सं. १०२४ का लिख मारा है, देखो 'खरतरमतोत्पत्ति दूसरा भाग' । तथा वर्धमानसूरि को १०८८ में आबू के मंदिर की प्रतिष्ठा कराना लिख मारा है, इसी प्रकार आधुनिक खरतरों ने ११४७ का जाली लेख छपा दिया है। इस प्रकार कल्पित लेख लिखना तो खरतरों ने जन्मसिद्ध हक्क एवं अपना सिद्धान्त ही बना लिया है और कल्पित मत में कल्पित लेख लिखा जाय तो इसमें आश्चर्य करने की बात ही क्या है। खैर, जिनदत्तसूरि ने आचार्य बनने के बाद क्या किया जिनको भी मैं यहां दर्ज कर देता हूं।
__ जिनदत्तसूरि ने इस नूतन मत की वृद्धि के लिए एक मिथ्यात्वी चामुण्डा देवी की आराधना की। जिसके मठ में पूर्व जिनवल्लभ भी ठहरा था। पर देवी देवता भी तो इतने भोले नहीं होते हैं कि ऐसे शासन भंजकों का साथ दें अर्थात् न सफलता मिली थी जिनवल्लभ को और न मिली जिनदत्त को । फिर भी जिनदत्त भद्रिक लोगों को कहता था कि देवी चामुण्डा मेरे बस हो गई। अतः कई लोग जिनदत्त के मत को चामुण्डिक मत कहने लग गये। महोपाध्याय धर्मसागरजी के मतानुसार इस घटना का समय वि. सं. १२०१ का कहा जाता है। जिनदत्त ने जिनवल्लभ के त्रिविध संघ को बढ़ा कर चतुर्विध संघ बना दिया। _ 'पाखण्डे पूज्यते लोका ।' संसार में तत्त्व-ज्ञान को जानने वाले लोग बहुत थोड़े होते हैं। जिनदत्तसूरि के जीवन से यह भी पता मिलता है कि वह किसी को यंत्र, किसी को मंत्र, किसी को तंत्र और किसी को रोग निवारणार्थ १औषधियां वगैरह बतलाया करता था। अतः जिनवल्लभ की बजाय जिनदत्त के भक्तों की संख्या बढ़ गई हो तो यह असम्भव भी नहीं है, क्योंकि जनता हमेशा भौतिक सुखों
१. देखो-खरतरों की महाजन वंश मुक्तावली नामक किताब ।