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पूर्व बोत्थरा जाति विद्यमान थी। जैसे खरतरगच्छीय क्षमा कल्याणजी ने वि. सं. १८३० में खरतरगच्छ पट्टावली लिखी है, उसमें लिखा है कि
___'तथा अणहिल्लपत्तने बोहित्थरा गौत्रीय श्रावकेभ्यो जयति हुण वर कापरुक्ख' इति स्तोत्र दत्तम्
अर्थात् जिनदत्तसूरि ने अणहिल पट्टन में बोत्थरा को स्तोत्र दिया, इससे यही ज्ञात होता है कि जिनदत्तसूरि के पूर्व पाटण में बोत्थरा विद्यमान थे। अतएव बोत्थरा कोरंटगच्छीय आचार्य नन्नप्रभसूरि प्रतिबोधित कोरंटगच्छ के श्रावक हैं। क्रिया के विषय में जहां जिसका अधिक परिचय था वहां उन्हींकी क्रिया करने लग गये थे पर बोत्थरों का मूलगच्छ तो कोरंटगच्छ ही है।
९. चोपड़ा-वि. सं. ८८५ में आचार्य देवगुप्तसूरि ने कनौज के राठोड़ अडकमल को उपदेश देकर जैन बनाया। कुकुम गणधर धूपिया इस जाति की शाखाए हैं।
"खरतर यति रामलालजी चोपड़ा जाति को जिनदत्तसूरि और श्रीपालजी वि. सं. ११५२ में जिनवल्लभसूरि ने मंडौर का नानुदेव प्रतिहार-इन्दा शाखा को प्रतिबोध कर जैन बनाया लिखा
__ कसौटी-अव्वल तो प्रतिहारों में उस समय इन्दा शाखा का जन्म तक भी नहीं हुआ था। देखिये प्रतिहारों का इतिहास बतला रहा है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में नाहडराव (नागभट्ट) प्रसिद्ध प्रतिहार हुआ। उसकी पांचवीं पिढ़ी में राव आम यक हुआ, उसके १२ पुत्रों से इन्दा नाम का पुत्र की सन्तान इन्दा कहलाई थी, अतएव वि. सं. ११५२ में इन्दा शाखा ही नहीं थी, दूसरा मंडोर के राजाओं में उस समय नानुदेव नाम का कोई राजा ही नहीं हुआ। प्रतिहारों की वंशावली इस बात को साबित करती है, जैसे किमंडोर के प्रतिहार
इसमें ११०३ से १२१२ तक कोई भी नानुदेव राव रघुराज सं. ११०३ राजा नहीं हुआ है। खरतरों को इतिहास की क्या
परवाह है। उनको तो किसी न किसी गप्प गोला सेज्हाराज चला कर ओसवालों की प्रायः सब जातियों को
खरतर बनाना है पर क्या करें बिचारे जमाना ही संबरराज
सत्य का एवं इतिहास का आ गया कि खरतरों की
गप्पे आकाश में उडती फिरती हैंभुपतिराज
जैसे पाटण के बोत्थरों को स्तोत्र देकर दादाजी ने तथा आपके अनुयायियों ने बोत्थरों को