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बात भारत के प्राचीन राज वंश (राष्ट्रकूट) पृष्ठ ३६८ पर ऐ. पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ ने लिखी है, जब किसनगढ़ ही वि. सं. १६६६ में बसा है तो वि. सं. १५९५ में किसनगढ़ के राजा रायमल के पुत्र मोहणजी को कैसे प्रतिबोध दिया? क्या यह मुनोयतों के प्राचीन इतिहास का खून नहीं है? यतिजी जिस किशनगढ़ के राजा रायपाल का स्वप्न देखा है उसको किसी इतिहास में बतलाने का कष्ठ
करेगा?
५. सुरांणा-वि. सं. ११३२ में आचार्य धर्मघोषसूरि ने पँवार राव सुरा आदि को प्रतिबोध कर जैन बनाये, जिसकी उत्पत्ति खुर्शीनामा नागोर के गुरो गोपीचन्दजी के पास विद्यमान हैं। सुरा की संतान सुरांणा कहलाई।
"खरतर-यति रामलालजी ने महा. मुक्ता. पृ. ४५ पर लिखा है कि वि. सं. ११७५ में जिनदत्तसूरि ने सुराणा बनाया, मूलगच्छ खरतर-"
कसौटी-यदि सुरांणा जिनदत्तसूरि प्रतिबोधित होते तो सुरांणागच्छ अलग क्यों होता? जो चौरासी गच्छों में एक है, उस समय दादाजी का शायद जन्म भी नहीं हुआ होगा, अतएव खरतरों का लिखना एक उड़ती हुई गप्प है।
६. झामड़ झावक-वि. सं. ९८८ आचार्य सर्वदेवसूरि ने हथुड़ी के राठोड़ राव जगमालादिकों प्रतिबोध कर जैन बनाये। इन्हों की उत्पत्ति वंशावली नागपुरिया तपागच्छ वालों के पास विस्तार से मिलती हैं।
"खरतर-यति रामलालजी महा. मुक्ता. पृ. २१ पर लिखते हैं कि वि. सं. १५७५ में खरतराचार्य भद्रसूरि ने झाबुआ के राठोड़ राजा को उपदेश देकर जैन बनाये, मूलगच्छ खरतर-"
कसौटी-भारत का प्राचीन राजवंश नामक इतिहास पुस्तक के पृष्ठ ३६३ पर पं. विश्वेश्वरनाथ रेउ ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि :
"यह झाबुआ नगर ईसवी सन् की १६ वीं शताब्दी में लाझाना जाति के झब्बू नायक ने बसाया था परन्तु वि. सं. १६६४ (ई. सं. १६०७) में बादशाह जहाँगीर ने केसवदासजी (राठोड़) को उक्त प्रदेश का अधिकार देकर राजा की पदवी से भूषित किया।"
सभ्य समाज समझ सकता है कि वि. सं. १६६४ में झाबुआ राठोड़ों के अधिकार में आया, तब वि. सं. १५७५ में वहां राठोड़ों का राज कैसे हुआ होगा? दूसरा जिनभद्रसूरि भी उस समय विद्यमान ही नहीं थे, कारण उनके देहान्त वि. सं. १५५४ में हो चुका था । झावक लोग इस बीसवीं शताब्दी में इतने अज्ञात शायद ही रहे हों कि इस प्रकार की गप्पों पर विश्वास कर सकें। भंवाल के झामड विक्रम