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था पर उनकी संतानने कभी ऐसे शब्दोच्चारण नहीं किया कि हमारे आचार्य ऐसे हुए हैं, कारण केवल कहने से ही उनका महत्व नहीं बढ़ता हैं पर काम करनेवालों को सब लोग पूज्यदृष्टि से देखते हैं।
इतना होने पर भी तपागच्छीय किसी व्यक्तिने यह नहीं कहा कि इस समय भारत में तपागच्छ का ही उदय है। और न उनको कहने की आवश्यकता ही है, क्योंकि तपागच्छ के आधुनिक प्रभाव को जनता स्वयं जानती है। कहा है कि :
"नहि कस्तूरिका गन्ध शपथेन विभाव्य।" अर्थात्-कस्तूरी की सुगन्ध सौगन्ध से सिद्ध नहीं होती, वह तो स्वयं जाहिर होती है। जिनदत्तसूरि के लिये केवल आधुनिक खरतरे ही यह कहते हैं कि ८४ गच्छों में जिनदत्तसूरि जैसा कोई प्रभाविक व्यक्ति हुआ ही नहीं, पर शेष गच्छवाले तो इन का कभी जिक्र ही नहीं करते हैं। जिनदत्तसूरि के समकालिन आचार्य हेमचन्द्रसूरिने परमार्हत कुमारपाल को जैन बना कर जैनधर्म की महान् प्रभावना की तब जिनदत्तसूरिने शासन में भयङ्कर विरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया। जिसका कटु फल आज तक जैनजगत् चाख रहा है। इस प्रकार प्रत्येक गच्छ में प्रभाविक आचार्य हुए है।
खरतरों ! जरा समय को पहचानों, सोच समझ कर बातें करो तथा विवेक से लिखो, ताकि आज की जनता जरा आप की भी कदर करे, अन्यथा याद रक्खो :"विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखाः"
दीवार नंबर १० कइ खरतर लोग लिखते हैं कि दादाजी जिनदत्तसूरिने सिन्धदेश में जा कर पांच पीरों को साधे थे इत्यादि।
समीक्षा-भगवान् महावीर के पश्चात् और जिनदत्तसूरि के पूर्व हजारों जैनाचार्य हो गुजरे, पर मुसलमान जैसे निर्दय पीरों की किसीने आराधना नहीं की और मोक्ष मार्ग की आराधना करनेवाले मुमुक्षुओं को ऐसे निर्दय पीरों को साधने की कोई जरुरत भी नहीं थी, फिर जिनदत्तसूरि को ही ऐसी क्या गरज पड़ी थी कि वे पीरों की आराधना की थी? और यदि की भी थी तो फिर वह किस विधि विधान से? जैन विधि से या पीरों की विधि से? उस साधना में बलि बाकुल किस पदार्थ का किस विधि से दिया ? भला, पांच पीरों को साध कर जिनदत्तसूरि ने क्या किया? क्या किसी मुसलमान को भारत पर आक्रमण करते को रोका या