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आंचलगच्छ के और नाहर नागपुरिया तपागच्छ के, सेठिया संखेश्वरा गच्छ के तथा भंडारी संडेरागच्छ के हैं। डागा मालु नाणावल गच्छ के नौलखा, बरड़िया, बांठिया, शाह, हरखाबत, लोढा आदि तपागच्छ के हैं। इस विषय का विशेष खुलासा मेरी लिखी "जैन जातियों के गच्छों का इतिहास" नाम की पुस्तक में देखो।
प्यारे खरतर भाईयों! अब वह अन्धकार और गतानुगति का जमाना नहीं है, जो आप झूठ मूठ बातें लिख कर भोले भाले लोगों को धोखा दे अपना अनुचित स्वार्थ सिद्ध कर सको। आज तो बीसवीं सदी है, मुंहसे बात निकालते ही जनता प्रमाण पूछती है। आप जिन जातियों को जिनदत्तसूरि द्वारा प्रस्थापित होने का लिखते हो क्या उनके लिये एकाध प्रमाण भी बता सकते हो? मैंने कोई १२ वर्ष पहले पूर्वोक्त जातियों के लिए ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ "जैनजाति निर्णय" नामक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी पर उसके प्रतिवाद में असभ्य शब्दों में मुझे गालियों के सिवाय आज पर्यन्त एक भी प्रमाण आपने नहीं दिया है और अब उम्मेद भी नहीं है, क्योंकि जहां केवल जबानी जमा खर्च रहता है वहां प्रमाणों की आशा भी क्या रखी जा सकती है?
यदि किसी ग्राम में अधिक परिचय के कारण कई जातियों को खरतरगच्छ की क्रिया करते देख के ही यह ढांचा तैयार किया हो तो आपने बड़ी भारी भूल की है। क्योंकि पूर्वोक्त जातियां कई स्थानों पर ढूंढिया और तेरहपन्थियों की क्रियाएं भी करती हैं। पर इस से यह मानने को तो आप भी तैयार न होंगे कि उन जातियों की स्थापना किसी ढूंढिये या तेरहपन्थी आचार्यने की है। अतएव यह बात हम बिना संकोच के कह सकते हैं कि खरतरों के किसी आचार्यने एक भी नया ओसवाल नहीं बनाया। आपने जो अपने उपासक बनाये हैं वे सब जैनसंघ में फूट डाल कर भगवान् महावीर के पांच कल्याणक माननेवाले थे, उन्हें छ: कल्याणक मनवा कर और स्त्रियें जो प्रभुपूजा करती थी उन से प्रभुपूजा छुडा कर अर्थात् उनके कल्याण कार्य संपादन में अन्तराय दे कर, जैसे ढूंढियोंने जिन लोगों को मूर्तिपूजा छूडा कर और तेरहपंथियोंने दया दान के शत्रु बना कर अपने श्रावक माने हैं वैसे ही आप खरतरोंने भी इन से बढ़के कुछ काम नहीं किया है। इस लिये किसी जैन को खरतरों की लिखी मिथ्या कल्पित पुस्तकों को पढ़ कर भ्रम में न पड़ना चाहिये । और अपनी अपनी जाति की उत्पत्ति का निर्णय कर अपने मूल प्रतिबोधक आचार्यों का उपकार और उनके गच्छ को ही अपना गच्छ समझना चाहिये।