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दिया है। और जिन जातियों का प्राचीन इतिहास है उनको अर्वाचीन बतलाकर सैकड़ों वर्ष में उन लोगों ने देश, समाज और धार्मिक कार्यों में तन मन धन व्यय किया उनको भी मिट्टी में मिला दिया। इन खरतरों ने केवल अपना कलंक धोने के कारण जैन समाज के इतिहास को भी बड़ा भारी नुकसान पहुचाया।
१४. जिनदत्त ने केवल स्त्रियों को जिन पूजा निषेध करके अन्तराय कर्म का वज्र पाप शिर पर नहीं उठाया था पर इसने तो और भी अनेक प्रकार का उत्सूत्र भाषण किया है जैसे :
१५. श्री भगवती सूत्र के मूल पाठ में वर्णन आया है कि पोक्खली आदि अनेक श्रावकों ने असानपानादि खाते पीते अर्थात् एकासना करके पौषध व्रत किया था। पर जिनदत्त ने इस सूत्र पाठ को उस्थापकर इस प्रकार पौषध करने का निषेध कर दिया। जिनसे बिना अक्ल के खरतरों ने आज सात सौ वर्षों से इस प्रकार पौषध व्रत को छोड़ दिया और इस अन्तराय का खास कारण जिनदत्त ही था।
१६. भगवती सूत्र और सुखविपाक सूत्र में राजा उदाई तथा सुबाहुकुमार वगैरह ने तीन उपवास कर पौषध किया था। इसमें चौदस पूर्णिमा तो पर्व दिन थे पर साथ में तेरस या एकम का दिन भी शामिल था। इसका मतलब यह होता है कि श्रावक को जिस दिन अवकाश मिले उसी दिन पौषध व्रत कर सकता है
और जिनेन्द्र देवों की आज्ञा भी ऐसी ही है कि धर्म के कार्य में विलम्ब न करना। कारण न जाने आयुष्य किस समय पूर्ण होता है। पर अक्ल के दुश्मन खरतरों ने एवं जिनदत्त ने यह मिथ्या प्ररुपणा कर दी कि श्रावक सिवाय पर्व के पौषधव्रत कर ही नहीं सकता है। भला किसी को नवमी या एकम को पौषधव्रत करना है तो वह चौदस एवं आटें तक कब राह देखा करे और बीच में ही उनका देहान्त हो जाय तो इस अन्तराय कर्म का अधिकारी तो जिनदत्त ही हुआ न? आज करीब ७००, ८०० वर्षों से बिचारे बिना अक्ल के खरतर उस हठ को लिये बैठे हैं। इच्छा के होते हुये भी वह बिना पर्व पौषधव्रत नहीं कर सकते हैं। इस अन्तराय का सब पाप जिनदत्तसूरि को ही लगेगा। क्योंकि इस प्रकार उत्सूत्र प्ररुपणा उसने ही की थी।
१७. मनुष्य एक झूठ बोलता है और झूठ को सत्य बनाने के लिये उसको दस झूठ और तैयार करने पड़ते हैं। यही हाल खरतरों का हुआ है। जिनदत्त ने
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श्री भगवती सूत्र श. १२ = १ ।२ श्री भगवती सूत्र श. १३ ।७ और सुख विपाक अ.१