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अभयदेवसूरि के पट्टधर वर्धमानसूरि मौजूद होने पर भी अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के बाद ३२ वर्षों से आचार्य बन गया और जो भगवान महावीर के गर्भापहार नामक छट्ठा कल्याणक का जैन समाज में भयंकर मतभेद खड़ा हुआ यह उन जिनवल्लभ की उत्सूत्र प्ररुपणा का ही फल है। पर करे क्या? बात पकड़ ली। जहां काम पड़ता है वहाँ खरतरों को उसका पक्ष लेना ही पड़ता है। जैसे गोसाला के भक्त समझ गये थे कि सच्चे तीर्थंकर तो भगवान् महावीर हैं। गोसाला ने तो एक झूठा बंड उठाया था फिर भी काम पड़ने पर वे गोसाला के पक्षकार बन जाते । यह तो दूर समय की बात है पर इस समय कई ग्रामों में होली का राव बनाया जाता है। सब लोग जानते हैं कि यह एक बिना इज्जत का आदमी है पर जब काम पड़ता है तो उस होली के बादशाह के लिये शिर की भी बाजी लगा देते हैं। यही हाल खर-तरों का हुआ है।
___ खास जिनदत्तसूरि का बनाया हुआ 'गणधरसार्द्धशतक' ग्रन्थ है, उस पर जिनपतिसूरि के शिष्य सुमतिसाधुने बृहद्वृत्ति रची है। चारित्रसिंह गणि ने प्रकरण रचा है, उसमें लिखा है कि जिनवल्लभ गणि ने चित्तौड़ के किल्ले में रहकर छट्ठा गर्भापहार कल्याणक की प्ररुपणा की थी। १. तत्र कृत चातुर्मासिक कल्पानां श्रीजिनवल्लभवाचनाचार्याणामाश्विनमासस्य कृष्णपक्षत्रयोदश्यो
श्रीमहावीरदेवगर्भापहारकल्याणकं समागतं । ततः श्राद्धानां पुरो भणितं जिनवल्लभगणिना भोः श्रावका ! अद्य श्रीमहावीरस्य षष्ठं गर्भापहारकल्याणकं "पंच हत्थुत्तरे होत्था साइणा परिनिव्वुडे" इति प्रकटाक्षरैरेव सिद्धान्ते प्रतिपादनादन्यच्च तथाविधं किमपि विधिचैत्यं नास्ति, ततोऽत्रैव चैत्यवासिचैत्ये गत्वा यदि देवा वंद्यते तदा शोभनं भवति, गुरुमुखकमलविनिर्गतवचनाराधकैः श्रावकैरुक्तं भगवन् यद्युष्माकं सम्मतं तत्क्रियते, ततः सर्वे पौषधिकाः श्रावका सुनिर्मलशरीरा निर्मलवस्त्रा गृहीतनिर्मलपूजोपकरणा गुरुणा सह देवगृहे गंतुं प्रवृत्ताः । ततो देवगृहस्थित आर्यिकया, गुरुश्राद्धसमुदायेनागच्छतो गुरुन्दृष्टवाः पृष्टं को विशेषोऽद्य ? केनापि कथितं । वीरगर्भापहारषष्ठकल्याणककरणार्थमेते समागच्छंति, तथा चिंतितं पूर्वं केनापि न कृतमेतंदेतेहेऽधुना करिष्यंतीति न युक्तं । पश्चात् संयती । देवगृहद्वारे पतित्वा स्थितः द्वार प्राप्तान् प्रभू नवलोक्योक्तमेतया, दुष्टचित्तया मया मृतया मृतया यदि प्रविशत तादृग प्रीतिकं ज्ञात्वा निर्वर्त्य । स्वस्थानं गताः पूज्याः। श्राद्धैरुक्तं भगवन्नास्माकं बृहत्तराणी सदनानि संति, तत एकस्य गृहोपरि चतुर्विंशति पट्टकं धृत्वा देव वंदनादि सर्वं धर्मं प्रयोजनं क्रियते ।
गण. ता. श., पृष्ठ २० इसमें 'समागतं' शब्द बतला रहा है कि छठे कल्याणक की बात जिनवल्लभ ने ही चलाई है, प्रकटाक्षरैरेव इस शब्द से भी यह सिद्ध होता है कि छट्ठा कल्याणक रुप अक्षर जिनवल्लभ के पूर्व किसी आचार्य ने नहीं देखा था, आगे चलकर "पूर्व केनाऽपि न कृतमेतदेतेऽधुना करिष्यन्तीति न युक्तं" इस शब्द से पाया जाता है कि उस समय भी इस उत्सूत्र का जैनोने सख्त विरोध किया था। अतः इन खरतरों के ग्रन्थ से ही साबित होता है कि वीर के छट्ठा कल्याणक की सबसे पहले जिनवल्लभ ने ही उत्सूत्र प्ररुपणा की थी।