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३. कई खरतर कहते हैं कि शास्त्रार्थ का विषय कांसीपात्र का था, तब कई कहते हैं कि विषय था लिंग का । तब कई कहते हैं कि शास्त्रार्थ था चैत्यवास और वस्तीवास का । कई कहते हैं कि साधुओं के आचार का ही विषय था ।
४. कई कहते हैं कि शास्त्रार्थ राजादुर्लभ की सभा में हुआ। तब कई कहते हैं कि शास्त्रार्थ राजा भीम की सभा में हुआ था ।
५. कई कहते हैं कि शास्त्रार्थ की विजय में खरतर बिरुद मिला । तब कई कहते हैं कि बिरुद तो खरा मिला था पर बाद में खर तर हुये थे ।
६. कई कहते हैं कि राजसभा में वर्धमानसूरि गये। कई कहते हैं कि राजसभा में जिनेश्वरसूरि गये, तब कई कहते हैं राजसभा में साधु नहीं गये पर राजपुरोहित सोमेश्वर ही गया था ।
७. शास्त्रार्थ का समय कई खरतर वि. सं. १०२४ का बतलाते हैं तब कई १०८० का बतलाते हैं, कई कहते हैं कि वर्धमानसूरि पाटण गये थे और वहां उनका स्वर्गवास होने के बाद शास्त्रार्थ हुआ । और कई वर्धमानसूरि के आबू की प्रतिष्ठा (१०८८) कराने के बाद जिनेश्वरसूरि को दीक्षा दी, बाद का समय शास्त्रार्थ का समय बतलाते हैं।
८. कई खरतर आग्रह करते हैं कि जिनेश्वरसूरि से खरतर हुये पर कई वर्धमानसूरि को तो कई उद्योतनसूरि को भी खरतर बतलाते हैं । इतना ही क्यों पर कई खरतरों ने तो गणधर गौतम और सौधर्म को भी खरतर बना दिया है इत्यादि । ' क्या शास्त्रार्थ की विजय में एक प्रसिद्ध राजा की ओर से मिला हुआ महत्वपूर्ण बिरुद की इस प्रकार विडम्बना हो सकती है ? जैसा जिसके दिल में आया उसने वैसा ही घसीट मारा। ठीक है, एक पति नहीं जिसके सहस्रपति हो जाते हैं। यदि शास्त्रार्थ की विजय में एक प्रसिद्ध राजा की ओर से बिरुद मिला होता तो किसी प्रमाणिक पुरुषों द्वारा उसका गौरव एक ही रुप में प्रकट होता, जैसे आचार्य जगच्चन्द्रसूरि को चित्तौड़ के महाराणा ने तपा बिरुद दिया वह एक ही रुप में आज पर्यन्त चला आया है और सब गच्छ के विद्वानों ने उसे स्वीकार भी किया है। तब खरतर बिरुद को खरतरों के अलावा आज पर्यन्त किसी गच्छवालों ने एवं किसी विद्वानों ने स्वीकार नहीं किया है कि खरतर बिरुद किसी राजा ने शास्त्रार्थ की विजय में दिया है। इतना ही क्यों, पर सब खरतर भी तो एक मत नहीं हैं। देखिये
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इस विषय के प्रमाण के लिये देखो खरतरगच्छोत्पत्ति भाग दूसरा ।