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भूमिका
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'खरयरमय मूलं उस्सुत्तं' खरतरमत मूल उत्सूत्र से पैदा हुआ है और इस मत के उत्पादकों की अक्ल के लिये इस मत का नाम खर-तर होना यह 'यथानामस्तथागुण' सार्थक भी है।
कल्पित एवं झूठा मत चलाने वालों के पास सिवाय असभ्य शब्दों में गालियों के और क्या मिल सकता है? देखिये तपागच्छादि अनेक गच्छों के आचार्यों को इन खर-तरोंने असभ्य शब्दों में सेकड़ों हजारों गालियाँ प्रदान की हैं। जैसे मिथ्यात्वी कदाग्रही उत्सूत्र प्ररुपक निन्हव और अनंतसंसारी आदि और यह क्रम इस मत की आदि से आज पर्यन्त चला ही आया है, हाल ही में 'बृहद्पर्युषण निर्णय' तथा 'युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि' नामक ग्रन्थों को उठा कर देखिये जिसमें खरतरों ने किस प्रकार पागल की तरह वैभान हो कर महापुरुषों पर गालियों की वोच्छावर की है।
खैर ! खरतरों को इतने से ही संतोष नहीं हुआ पर उन्होंने तो अभी उपकेशगच्छ आचार्यों की ओर भी अपना असभ्यता से भरा हुआ मुंह बढ़ाया है, जैसे ऊंट लंका की ओर अपना मंह बढाता है।
उपकेशगच्छ एक ऐसा शान्ति प्रिय गच्छ है कि जैन शासन में जितने गच्छ हुए हैं उन सब गच्छवालों ने उपकेश गच्छवालों का पूज्य भाव से सत्कार किया है कारण उपकेशगच्छाचार्यों का जैनसमाज पर महान् उपकार हुआ है। सबसे पहले महाजनसंघ की स्थापना उपकेशगच्छाचार्यों ने ही की थी, आज जो श्रीमाली पोरवाल और ओसवाल जातियाँ जैनधर्म पालन कर रही हैं अर्थात् जैनधर्म को जीवित रक्खा है यह उन उपकेश गच्छाचार्यों की कृपा का ही सुन्दर फल है। अतः जैनसमाज उपकेशगच्छाचार्यों का जितना उपकार माने उतना ही थोड़ा है।
हाँ कई अों से इस गच्छ में त्यागी साधु न होने से कई कृतघ्नी लोग उन उपकारी महापुरुषों को भूल कर अन्य गच्छीय साधुओं के उपासक बन गये हैं। खैर गुणीजन की उपासना करने में तो कोई हानि नहीं है पर अपने पर जिन