________________
१२२ rammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmMMMMMMMMNNNNN
चौलुक्यवंशमुक्तामाणिक्यचारुतत्त्वविचारचातुरीधुरीणविलसदंगरंगनित्यन्नीत्यङ्गनारंजितजगज्जनसमाजश्रीदुर्लभराजमहाराजराजसभायां, अनल्पजल्पजलधिसमुच्छलदतुच्छविकल्पकल्लोलमालाकवलितवहलप्रतिवादिकोविदग्रामण्यासंविग्नसाधुनिवहाऽग्रण्या, सुविहितवसतिपथप्रथनरविणा, वादिकेसरिणा, श्रीजिनेश्वरसूरिणा, श्रुतयुक्तिभिर्बहुधा चैत्यवासव्यवस्थापन प्रति प्रतिक्षिप्तेष्वपि लांपट्याभिनेवेशाभ्यां तनिर्बन्धमजहत्सु यथाछन्देषु ततस्तदुत्सूत्रदेशनाविरलगरललहरीचरीकृष्यमाणहृदयभूमिनिहितचेतनाबीजमुदग्रदुर्निग्रहकुग्रहाऽवग्रहशोशुष्यमाणविवेकांकुरं निरर्गलमुखकुहरनिःसरदुhणीकृपाणीकृतधामिकमर्माणं श्राद्धसंघं निरीक्ष्य तदुपचिकीर्षया हृद्या नवद्यऽसमग्रविद्यानितंबिनीचुम्बितवदनतामरससान्द्रसंवेगशास्त्रार्थरसायनपानवांतकामरसः, सुविहितमुनिचक्रवालशिखामणि सिद्धान्तविपर्यास्तप्ररूपणमहान्धकारनिकारतरणिः सुगृहीतनामधेयः प्रणतप्राणिसंदोहतितीर्णशुभाभागधेयः चैत्यवासदोषभासनसिद्धान्ताकर्णनापासितकृतचतुर्गतिसंसारायासजिनभवनवासः सर्वज्ञशासनोत्तमांगस्थानादिनवाङ्गवृत्तिकृत् श्रीमदभयदेवसूरिपादसरोजमूले गृहीतचरित्रोऽयं संपत्तिः करुणासुधातरंगिणीतरंगरंग-त्स्वान्तःसुविधिमार्गावभासन प्रादुःषद्विशदकीर्तिकौमुदीनिषूदितदिक्सीमन्ति नीवदनध्वांतः, स्वस्योपसर्गमभ्युपगम्याऽपिविदुषा दुरध्वविध्वंसनमेवाधेयमिति सत्पुरुष पदवीमदवीयसीं विदधानः समुज्जितभूरिभगवान् श्रीजिनवल्लभसूरिः।
इस टीका प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी तक अर्थात् जिनपतिसूरि के समय तक तो किसीने भी खरतर शब्द को नहीं अपनाया था। यदि जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में ही खरतर बिरुद मिला होता तो जिनेश्वरसूरि के लम्बे चौड़े विशेषणों के साथ यह खरतर बिरुद कभी छिपा हुआ नहीं रहता।
उपरोक्त खरतराचार्यों के प्राचीन ग्रन्थों से सिद्ध होता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनेश्वरसूरि से नहीं पर जिनदत्तसूरि से हुई है और खरतर गच्छ के सिवाय तपागच्छ, आंचलगच्छ, उपकेशगच्छ आदि अन्य गच्छवालों की भी यही मान्यता है कि खरतर शब्द की उत्पत्ति जिनदत्तसूरि से ही हुई थी। अब आगे चल कर हम सर्वमान्य शिलालेखों का अवलोकन करेंगे कि किस समय से खरतर शब्द का प्रयोग किस आचार्य से हुआ है। इस समय हमारे सामने निम्नलिखित शिलालेख मौजूद हैं :