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के प्रमाण दे सिद्ध किया हैं। इतना ही नहीं पर जिनवल्लभसूरि को भी खरतर न कह कर, पूर्व आचार्यों ने चन्द्रकुली कहा है। तद्यथा :
"सूरिः श्रीजिनवल्लभोऽजनि बुधश्चान्द्रे कुले तेजसा ।
सम्पूर्णोऽभयदेवसूरिचरणाऽम्भोजालिलीलायितः ॥"
इस प्रमाण से स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिनवल्लभसूरि तक तो वह सब चन्द्रकुल के साधु कहलाते थे।
प्रश्न-खरतर गच्छ वाले जिनेश्वरसूरि को शास्त्रार्थ की विजय में "खरतर बिरुद" मिलने का कहते हैं, वे भी तो कोई आधार पर कहते होंगे?
खरतर गच्छ वालों के पास 'खरतर बिरुद' मिलने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, कारण 'खरतर बिरुद' किसी आचार्य को किसी एक व्यक्ति से नहीं मिला है, न यह कोई मानसूचक शब्द है, कि जो किसी महत्व के कार्य से प्राप्त हुआ है। संघ पट्टकादि ग्रन्थों से पाया जाता है कि जिनेश्वरसूरि और चैत्यवासियों से शास्त्रार्थ जरुर हुआ था। फिर अर्वाचीन लोगों ने उनके साथ 'खरतर बिरुद' को जोड़ दिया है पर प्राचीन ग्रन्थ व शिलालेखों में कहीं पर खरतर शब्द खोजने से भी नहीं मिलता है। यदि वास्तव में यह सत्य होता तो प्रायः १२५ वर्षों में चार पाँच पाट हुए, उनमें कोई न कोई आचार्य तो अपने ग्रन्थों में खरतर शब्द का उपयोग जरुर करता। पर यह कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है। हा आंशिक सम्बन्ध जिनदत्तसूरि के साथ खरतर शब्द का जरुर है।
दर असल में यह बात ऐसी बनी प्रतीत होती है कि जिनवल्लभसूरि चैत्यवासी आचार्य के शिष्य थे, बाद में अभयदेवसूरि के पास उन्होंने पुनः क्रियोद्धार किया अर्थात् फिर से दीक्षित हुए और पठन पाठन के पश्चात् उन्होंने चैत्यवास को शास्त्र-विरुद्ध समझ उसे मूलोच्छिन्न करने को जोर शोर से उपदेश देना प्रारम्भ किया, पर प्रकृति (कुदरत) आपके अनुकूल नहीं थी। आपने चित्रकूट पर भगवान् महावीर के पंच कल्याणक के बजाय छ: कल्याणक की प्ररुपणा की। चैत्यवासियों को यह ठीक अवसर मिला। उन लोगों ने जिनवल्लभसूरि को उत्सूत्रवादी घोषित कर दिया । कारण जैनशास्त्रों में सर्वत्र महावीर के पाँच कल्याणक ही माने गए हैं। आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने "पंचाशक" नाम के ग्रन्थ में महावीर के पाँच कल्याणक और उनकी अलग-अलग तिथियों का उल्लेख किया है और उन पर आचार्य अभयदेवसूरि ने टीका करके भी पाँच कल्याणक ही सिद्ध किए हैं। जब जिनवल्लभसूरि ने छ: कल्याणक बताये तो लोगों को यह प्रत्यक्ष ही उत्सूत्र जचा। चैत्यवासी तो पहले ही से जिनवल्लभसूरि के विरोध में थे, फिर यह मौका