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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक चूलिका-१-रतिवाक्य सूत्र -५०६
इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में जो प्रव्रजित हुआ है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया । अतः वह संयम का परित्याग कर जाना चाहता है, किन्तु संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए।
ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत के लिए पताका समान हैं । जैसेओह ! दुष्षमा आरे में जीवन दुःखमय है । गृहस्थों के कामभोग असार एवं अल्पकालिक हैं | मनुष्य प्रायः कपटबहुल हैं । मेरा यह दुःख चिरकाल नहीं होगा । गृहवास में नीच जनों का पुरस्कार-सत्कार (करना पड़ेगा ।) पुनः गृहस्थवास में जानेका अर्थ है-वमन किये हुए का वापिस पीना । नीच गतियों में निवास को स्वीकार करना ।
अहो ! गृहवास में गृहस्थों के लिए शुद्ध धर्म निश्चय ही दुर्लभ है । वहाँ आतंक उसके वध का कारण होता है । वहाँ संकल्प वध के लिए होता है | गृहवास क्लेश-युक्त है, मुनिपर्याय क्लेशरहित है । गृहवास बन्ध है, श्रमणपर्याय मोक्ष है । गृहवास सावध है, मुनिपर्याय अनवद्य है । गृहस्थों के कामभोग बहुजन-साधारण हैं । प्रत्येक के पुण्य और पाप अपने-अपने हैं । मनुष्यों का जीवन कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है, निश्चय ही अनित्य है । मैंने पूर्व बहुत ही पापकर्म किये हैं । दुष्ट भावों से आचरित तथा दुष्पराक्रम से अर्जित पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग लेने पर ही मोक्ष होता है, अथवा तप के द्वारा क्षय करने पर ही मोक्ष होता
है।
सूत्र -५०७-५०८
इस विषय में कुछ श्लोक हैं-जब अनार्य (साधु) भोगों के लिए (चारित्र-) धर्म को छोड़ता है, तब वह भोगों में मूर्च्छित बना हुआ अज्ञ अपने भविष्य को सम्यक्तया नहीं समझता । वह सभी धर्मों में परिभ्रष्ट हो कर वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे आयु पूर्ण होने पर देवलोक के वैभव से च्युत हो कर पृथ्वी पर पड़ा हुआ इन्द्र । सूत्र - ५०९-५११
जब (साधु प्रव्रजित अवस्था में होता है, तब) वन्दनीय होता है, वही पश्चात् अवन्दनीय हो जाता है, तब वह उसी प्रकार पश्चात्ताप करता है, जिस प्रकार अपने स्थान से च्युत देवता । पहले पूज्य होता है, वही पश्चात् अपूज्य हो जाता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे राज्य से भ्रष्ट राजा । पहले माननीय होता है, वही पश्चात् अमाननीय हो जाता है, तब वह वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कर्बट में अवरुद्ध सेठ। सूत्र - ५१२-५१४
उत्प्रव्रजित व्यक्ति यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर जब वृद्ध होता है, तब वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कांटे को निगलने के पश्चात् मत्स्य । दुष्ट कुटुम्ब की कुत्सित चिन्ताओं से प्रतिहत होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे बन्धन में बद्ध हाथी । पुत्र और स्त्री से घिरा हुआ और मोह की परम्परा से व्याप्त वह पंक में फंसे हुए हाथी के समान परिताप करता है। सूत्र - ५१५
यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होकर जिनोपदिष्ट श्रामण्य-पर्याय में रमण करता तो आज मैं गणी (आचार्य) होता। सूत्र - ५१६-५१७
(संयम में) रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक समान और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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