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________________ आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक' अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ४४३ जो साधक आचार्य और उपाध्याय की सेवा-शुश्रूषा करते हैं, उनके वचनों का पालन करते हैं, उनकी शिक्षा उसी प्रकार बढ़ती है, जिस प्रकार जल से सींचे हुए वृक्ष बढ़ते हैं। सूत्र - ४४४-४४७ जो गृहस्थ लोग इस लोक के निमित्त, सुखोपभोग के लिए, अपने या दूसरों के लिए; शिल्पकलाएँ या नैपुण्यकलाएँ सीखते हैं । ललितेन्द्रिय व्यक्ति भी कला सीखते समय (शिक्षक द्वारा) घोर बन्ध, वध और दारुण परिताप को प्राप्त होते हैं। फिर भी वे गुरु के निर्देश के अनुसार चलने वाले उस शिल्प के लिए प्रसन्नतापूर्वक उस शिक्षकगुरु की पूजा, सत्कार व नमस्कार करते हैं। तब फिर जो साधु आगमज्ञान को पान के लिए उद्यत है और अनन्त-हित का इच्छुक है, उसका तो कहना ही क्या ? इसलिए आचार्य जो भी कहें, भिक्षु उसका उल्लंघन न करे सूत्र - ४४८-४४९ (साधु आचार्य से) नीची शय्या करे, नीची गति करे, नीचे स्थान में खड़ा रहे, नीचा आसन करे तथा नीचा होकर आचार्यश्री के चरणों में वन्दन और अंजलि करे । कदाचित् आचार्य के शरीर का अथवा उपकरणों का भी स्पर्श हो जाए तो कहे-मेरा अपराध क्षमा करें, फिर ऐसा नहीं होगा। सूत्र - ४५० जिस प्रकार दुष्ट बैल चाबुक से प्रेरित किये जाने पर (ही) रथ को वहन करता है, उसी प्रकार दुर्बुद्धि शिष्य (भी) आचार्यों के बार-बार कहने पर (कार्य) करता है। सूत्र - ४५१ गुरु के एक बार या बार-बार बुलाने पर बुद्धिमान् शिष्य आसन पर से ही उत्तर न दे, किन्तु आसन छोड़ कर शुश्रूषा के साथ उनकी बात सुन कर स्वीकार करे। सूत्र -४५२ काल, गुरु के अभिप्राय, उपचारों तथा देश आदि को हेतुओं से भलीभाँति जानकर तदनुकूल उपाय से उस-उस योग्य कार्य को सम्पादित करे । सूत्र -४५३ अविनीत को विपत्ति और विनीत को सम्पत्ति (प्राप्त) होती है, जिसको ये दोनों प्रकार से ज्ञात है, वही शिक्षा को प्राप्त होता है। सूत्र - ४५४ जो मनुष्य चण्ड, अपनी बुद्धि और ऋद्धि का गर्वी, पिशुन, अयोग्यकार्य में साहसिक, गुरु-आज्ञा-पालन से हीन, श्रमण-धर्म से अदृष्ट, विनय में अनिपुण और असंविभागी है, उसे (कदापि) मोक्ष (प्राप्त) नहीं होता। सूत्र -४५५ किन्तु जो गुरुओं की आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करते हैं, जो गीतार्थ हैं तथा विनय में कोविद हैं; वे इस दुस्तर संसार-सागर को तैर कर कर्मों का क्षय करके सर्वोत्कृष्ट गति में गए हैं। -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-९- उद्देशक-३ सूत्र - ४५६ जिस प्रकार आहिताग्नि अग्नि की शुश्रूषा करता हुआ जाग्रत रहता है; उसी प्रकार जो आचार्य की शुश्रूषा मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद Page 38
SR No.034711
Book TitleAgam 42 Dashvaikalik Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 42, & agam_dashvaikalik
File Size2 MB
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