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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ३८४
जीवन को अध्रुव और आयुष्य को परिमित जान तथा सिद्धिमार्ग का विशेषरूप से ज्ञान प्राप्त करके भोगों से निवृत्त हो जाए। सूत्र - ३८५
अपने बल, शारीरिक शक्ति, श्रद्धा और आरोग्य को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर, अपनी आत्मा को धर्मकार्य में नियोजित करे । सूत्र - ३८६
जब तक वृद्धावस्था पीड़ित न करे, व्याधि न बढ़े और इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तब तक धर्म का सम्यक् आचरण कर लो। सूत्र -३८७
क्रोध, मान, माया और लोभ, पाप को बढ़ाने वाले हैं । आत्मा का हित चाहनेवाला इन चारों का अवश्यमेव वमन कर दे। सूत्र - ३८८
क्रोध प्रीति का, मान विनय का, माया मित्रता का और लोभ तो सब का नाश करनेवाला है। सूत्र - ३८९
क्रोध को उपशम से, मान को मृदुता से, माया को सरलता से और लोभ पर संतोष द्वारा विजय प्राप्त करे सूत्र - ३९०
अनिगृहीत क्रोध और मान, प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों संक्लिष्ट कषाय पुनर्जन्म की जडें सींचते
सूत्र - ३९१
(साधु) रत्नाधिकों के प्रति विनयी बने, ध्रुवशीलता को न त्यागे । कछुए की तरह आलीनगुप्त और प्रलीनगुप्त होकर तप-संयम में पराक्रम करे । सूत्र - ३९२
साधु निद्रा को बह मान न दे । अत्यन्त हास्य को वर्जित करे, पारस्परिक विकथाओं में रमण न करे, सदा स्वाध्याय में रत रहे। सूत्र - ३९३
साधु आलस्यरहित होकर श्रमणधर्म में योगों को सदैव नियुक्त करे; क्योंकि श्रमणधर्म में संलग्न साधु अनुत्तर अर्थ को प्राप्त करता है। सूत्र - ३९४
जिस के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है, सुगति होती है । वह बहुश्रुत (मुनि) की पर्युपासना करे और अर्थ के विनिश्चय के लिए पृच्छा करे। सूत्र - ३९५
जितेन्द्रिय मुनि (अपने) हाथ, पैर और शरीर को संयमित करके आलीन और गुप्त होकर गुरु के समीप
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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