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आगम सूत्र ४२, मूलसूत्र-३, 'दशवैकालिक'
अध्ययन/उद्देश/सूत्रांक सूत्र - ४६
जो संयत है, विरत है, जिसने पाप-कर्मों का निरोध और प्रत्याख्यान कर दिया है, वह भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, अकेले या परिषद् में हो, सोते या जागते; कीट, पतंगे, कुंथु अथवा पिपीलिका हो हाथ, पैर, भुजा, उरु, उदर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, गुच्छक, उंडग, दण्डक, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक अथवा इसी प्रकार के अन्य किसी उपकरण पर चढ जाने के बाद यतना-पूर्वक प्रतिलेखन, प्रमार्जन कर एकान्त स्थान में ले जाकर रख दे उनको एकत्रित करके घात न पहूँचाए। सूत्र -४७-५२
अयतनापूर्वक-१-गमन करनेवाला । अयतनापूर्वक - २ -खड़ा होनेवाला - ३ -बैठनेवाला - ४ -सोने वाला - ५-भोजन करनेवाला - ६-बोलनेवाला, त्रस और स्थावर जीवों हिंसा करता है । उससे पापकर्म का बन्ध होता है, जो उसके लिए कटु फल वाला होता है। सूत्र - ५३-५४
साधु या साध्वी कैसे चले ? कैसे खडे हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए और बोले ?, जिससे कि पापकर्म का बन्धन हो ? यतनापूर्वक चले, यतनापूर्वक खड़ा हो, यतनापूर्वक बैठे, यतनापूर्वक सोए, यतनापूर्वक खाए और यतनापूर्वक बोले, (तो वह) पापकर्म का बन्ध नहीं करता। सूत्र - ५५
जो सर्वभूतात्मभूत है, सब जीवों को सम्यग्दृष्टि से देखता है, तथा आश्रव का निरोध कर चुका है और दान्त है, उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होता। सूत्र -५६
'पहले ज्ञान और फिर दया है' - इस प्रकार से सभी संयमी (संयम में) स्थित होते हैं।
अज्ञानी क्या करेगा? वह श्रेय और पाप को क्या जानेगा? सूत्र - ५७
श्रवण करके ही कल्याण को जानता है, पाप को जानता है। कल्याण और पाप-दोनों को जानता है, उनमें जो श्रेय है, उसका आचरण करता है। सूत्र - ५८
जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं जानता, जीव और अजीव दोनों को नहीं जाननेवाला वह संयम को कैसे जानेगा? सूत्र - ५९-७१
जो जीवों को, अजीवों को और दोनों को विशेषरूप से जानने वाला हो तो संयम को जानेगा । समस्त जीवों की बहुविध गतियों को जानता है । तब पुण्य और पाप तथा बन्ध और मोक्ष को भी जानता है । तब दिव्य और मानवीय भोग से विरक्त होता है । विरक्त होकर आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का परित्याग कर देता है । त्याग करता है तब वह मुण्ड हो कर अनगारधर्म में प्रव्रजित होता है । प्रव्रजित हो जाता है, तब उत्कृष्ट-अनुत्तरधर्म का स्पर्श करता है । स्पर्श करता है, तब अबोधिरूप पाप द्वारा किये हुए कर्मरज को झाड़ देता है । कर्मरज को झाड़ता है, तब सर्वत्र व्यापी ज्ञान और दर्शन को प्राप्त करता है।
तब वह जिन और केवली होकर लोक और अलोक को जानता है । लोक-अलोक को जान लेता है; तब योगों का निरोध करके शैलेशी अवस्था को प्राप्त कर लेता है । तब वह कर्मों का क्षय करके रज-मुक्त बन, सिद्धि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् (दशवैकालिक) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद
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