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________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति' लेकिन शरीर का रूप या जबान के रस के लिए न खाए । क्षुधा का निवारण करने के लिए भूख जैसा कोई दर्द नहीं है, इसलिए भूख को दूर करने के लिए आहार खाए, इस शरीर में एक तिल के छिलके जितनी जगह ऐसी नहीं कि जो बाधा न दे । आहार रहित भूखे को सभी दुःख सान्निध्य करते हैं, यानि भूख लगने पर सभी दुःख आ जाए, इसलिए भूख का निवारण करने के लिए साधु आहार ले । वैयावच्च करने के लिए भूखा साधु अच्छी प्रकार से वैयावच्च न कर सके, इसलिए आचार्य, उपाध्याय, ग्लान, बाल, वृद्ध आदि साधु की वैयावच्च अच्छी प्रकार से कर सके उसके लिए साधु आहार खाए । संयम का पालन करने के लिए, भूखा साधु प्रत्युप्रेक्षणा प्रमार्जना आदि संयम का पालन न कर सके, इसलिए संयम का पालन करने के लिए साधु आहार ले । शुभ ध्यान करने के लिए - भूखा साधु स्वाध्याय आदि शुभध्यान - धर्मध्यान न कर सके, अभ्यास किए गए सूत्र - अर्थ का परावर्तन करने में असमर्थ बने, इसलिए धर्मध्यान की हानि हो । इसलिए शुभध्यान करने के लिए साधु आहार खाए । प्राण को टिकाए रखने के लिए - भूखे हो तो शरीर की शक्ति नष्ट हो, जिससे शरीर को टिकाए रखने के लिए साधु आहार खाए । इर्यासमिति का पालन करने के लिए भूखे हो तो इर्यासमिति का अच्छी प्रकार से पालन न हो सके । इर्यासमिति का पालन अच्छी प्रकार से हो सके इसके लिए साधु आहार खाए । इन छह कारण से साधु आहार खाए, लेकिन देह का विशिष्ट वर्ण आकृति बने, स्वर मधुर बने, कंठ की मधुरता बने और अच्छे-अच्छे माधुर्य आदि स्वाद के लिए आहार खाए । शरीर का रूप, रस के लिए आहार लेने से धर्म का प्रयोजन नहीं रहने से कारणातिरिक्त नाम का दोष लगता है। छह कारण से साधु आहार खाए वो दिखाया । अब छह कारण से साधु को आहार नहीं लेना चाहिए यानि उसे उपवास कहते हैं। आतंक बुखार हो या अजीर्ण आदि हुआ हो तब आहार न ले । क्योंकि वायु, श्रम, क्रोध, शोक, काम और क्षत से उत्पन्न न होनेवाले बुखार में लंघन उपवास करने से देह को शुद्धि हो जाती है । उपसर्ग - रिश्तेदार दीआ छुड़ाने के लिए आए हो, तब आहार न खाए । आहार न लेने से रिश्तेदारों को ऐसा लगे कि, आहार नहीं लेंगे तो मर जाएंगे । इसलिए रिश्तेदार दीक्षा न छुड़ाए । राजा कोपायमान हआ हो तो न खाए, या देव, मानव या तीर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग हुआ हो तो उपसर्ग सहने के लिए न खाए । ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्य को बाधक मोह का उदय हआ हो तो न खाए । भोजन का त्याग करने से मोहोदय शमन होता है। जीवदया - बारिस होती हो, बूंदे गिरती हो, सचित्त रज या धूम्मस आदि गिरता हो या संमूर्छिम मेढ़क आदि का उद्भव हो गया हो तो उन जीव की रक्षा के लिए खुद से उन जीव को विराधना न हो इसलिए उपाश्रय के बाहर नीकले । आहार न खाए यानि उपवास करे जिससे गोचरी पानी के लिए बाहर न जाना पड़े और अपकायादि जीव की विराधना से बच शके । तप-तपस्या करने के लिए । (श्री महावीर स्वामीजी भगवंत के शासन में उत्कृष्ट छह महिने का उपवास का तप बताया है ।) उपवास से लेकर छह महिने के उपवास करने के लिए आहार न खाए। शरीर का त्याग करने के लिए - लम्बे अरसे तक चारित्र पालन किया, शिष्य को वाचना दी, कईं लोगों को दीक्षा दी, अंत में बुढ़ापे में सभी अनुष्ठान' में मरण-अनशन आराधना अच्छे हैं, इसलिए उसमें कोशीश करनी चाहिए। ऐसा समझकर आहार त्याग करनेवाले देह का त्याग करे । देह का त्याग करने के लिए आहार न ले। सूत्र - ७११-७१३ इस आहार की विधि जिस अनुसार सर्व भाव को देखनेवाले तीर्थंकर ने बताई है उस अनुसार मैंने समझ दी है । जिससे धर्मावशयक को हानि न पहुँचे ऐसा करना । शास्त्रोक्त विधि के अनुसार राग-द्वेष बिना यतनापूर्वक व्यवहार करनेवाला आत्मकल्याण की शुद्ध भावनावाले साधु का यतना करते हुए जो कुछ पृथ्वीकायादि की संघट्ट आदि विराधना हो तो वो विराधना भी निर्जरा को करनेवाली होती है । लेकिन अशुभ कर्म बंधन करनेवाली नहीं होती । क्योंकि जो किसी विराधना होती है, उसमें आत्मा का शुभ अध्यवसाय होने से अशुभ कर्म के बंधन के लिए मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 55
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
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