SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, "पिंडनियुक्ति' अनिसृष्ट कहलाता है और देनेवाले भाव अपरिणत में मालिक वहीं हाजिर हो इतना फर्क । भाव से अपरिणत भिक्षा लेना न कल्पे । क्योंकि उसमें कलह आदि दोष की संभावना है । दाता के विषय वाला भाव अपरिणत वो भाई या स्वामी सम्बन्धी है, जब कि ग्रहण करनेवाला विषयवाला भाव अपरिणत साधु सम्बन्धी है। सूत्र - ६५५-६६८ लिप्त का अर्थ है - जिस अशनादि से हाथ, पात्र आदि खरड़ाना, जैसे की दही, दूध, दाल आदि द्रव्यों को लिप्त कहलाते हैं । जिनेश्वर परमात्मा के शासन में ऐसे लिप्त द्रव्य लेना नहीं कल्पता, क्योंकि लिप्त हाथ, भाजन आदि धोने में पश्चात्कर्म लगते हैं तथा रस की आसक्ति का भी संभव होता है । लिप्त हाथ, लिप्त भाजन, शेष बचे हुए द्रव्य के आठ भेद होते हैं । अलिप्त द्रव्य लेने में दोष नहीं लगता, अपवाद से लिप्त द्रव्य लेना कल्पता है। हे भगवंत ! आपने कहा कि लिप्त ऐसे दहीं आदि ग्रहण करने में पश्चात्कर्म आदि दोष होते हैं, इसलिए साधु को लेपयुक्त द्रव्य नहीं लेने चाहिए, तो फिर साधु को भोजन ही नहीं करना चाहिए; जिससे पश्चात्कर्म दोष लगे ही नहीं । भिक्षा के लिए आने जाने का कष्ट भी न होवे, रस की आसक्ति आदि दोष न लगे, नित्य तप करे, फिर आहार करने का प्रयोजन ही क्या ? हे महानुभव ! जीवनपर्यन्त उपवास करने से चिरकाल तक होनेवाले तप, संयम, नियम, वैयावच्च आदि की हानि होती है, इसीलिए जीवनपर्यन्त का तप नहीं हो सकता। यदि जीवनपर्यन्त का तप न करे तो फिर उत्कृष्ट छह मास के उपवास तो बताए हैं ना ? छह महिने के उपवास करे और पारणा में लेपरहित ग्रहण करे, फिर छह मास के उपवास करे ? यों छह-छह मास के उपवास करने की शक्ति होवे तो खुशी से करे, इसमें निषेध नहीं। यदि छह मास का तप न हो सके तो एक एक दिन कम करते यावत् उपवास के पारणे में आयंबिल करे । ऐसा करने से लेपरहित द्रव्य ग्रहण हो सकते हैं और निर्वाह भी होता है । उपवास भी न कर सके तो नित्य आयंबिल करे । यदि ऐसी भी शक्ति न होवे और उस काल में तथा भविष्य में आवश्यक ऐसे पडिलेहण, वैयावच्चादि संयम योगो में हानि होती हो तो वह ऐसा भी तप कर सकता है । लेकिन वर्तमान काल में आखरी संघयण है, इसीलिए ऐसी शारीरिक शक्ति नहीं है कि यह तप भी कर सके । इसीलिए तीर्थंकर और गणधर भगवंतोने ऐसा उपदेश नहीं दिया है। आप कहते हैं कि आखरी संघयण होने से ऐसा तप निरंतर नहीं हो सकता, तो फिर महाराष्ट्र, कौशल आदि देश में जन्मे हुए लोग हमेशा खट्टा पानी, चावल आदि खाते हैं और जीवनपर्यन्त कार्य आदि कर सकते हैं, तो फिर जिसके लिए मोक्ष ही एक प्रयोजन है ऐसे साधु क्यों निर्वाह नहीं कर सकते ? साधु तो आयंबिल आदि से अच्छी प्रकार निर्वाह कर सकते हैं । साधु को उपधि, शय्या और आहार यह तीनो शीत होने से निरंतर आयंबिल करने से आहार का पाचन नहीं होता, इस से अजीर्ण आदि दोष उत्पन्न होते हैं, जब कि गृहस्थ तो खट्टा पानी और चावल खाते हुए भी उपधि-शय्या शीतकाल में उष्ण होने से आहार का पाचन हो जाता है । साधु के लिए तो आहार, उपधि, शय्या उष्णकाल में भी शीत होते हैं । उपधि का काँप साल में एक बार नीकले, शय्या को अग्नि का ताप न लगने से एवं आहार शीत होने से हौजरी में यथायोग्य पाचन नहीं होता, इसीलिए उसे अजीर्ण, ग्लानता आदि होते हैं। इसीलिए साध को तक्र आदि की छट दी है, फिर भी कहा है कि प्रायः साधुओं को दुध, दहीं आदि ग्रहण किए बिना ही अपने शरीर का निर्वाह करना, कदाचित यह शरीर ठीक न हो तो संयम योग की वृद्धि के लिए एवं शरीर की शक्ति टीकाने के लिए विगईयाँ ग्रहण करे । विगई में तक्र आदि उपयोगी है इसीलिए उसका ग्रहण करे । अन्य विगईयाँ तो विशेष कारण हो तो ही ग्रहण करे । क्योंकि विगई ज्यादा लेपकृत् द्रव्य होने से उसकी गृद्धि बढ़ती है। लेपरहित द्रव्य - सूखे पकाये हुए चावल आदि, मांडा, जव का साथवा, उडद, चोला, वाल, वटाणे, चने, तुवर आदि सब सूखे हो तो भाजन में चीपकते नहीं हैं । और भाजन लिप्त न होने से फिर धोना नहीं पड़ता। अल्प लेपयुक्त द्रव्य - शब, कोद्रव, तक्रयुक्त भात, पकाये हुए मुंग, दाल आदि द्रव्यों में पश्चात्कर्म कदाचित मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 51
SR No.034710
Book TitleAgam 41 2 Pindniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages56
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 2, & agam_pindniryukti
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy