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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति'
रूचंती - कपास में से रूई अलग नीकालती हो तो लेना न कल्पे । कंतंती - रूई में से सुत्त बुनती हो तो लेना न कल्पे । मद्माणी - रूई की पुणी बनाती हो तो लेना न कल्पे ।
अपवाद - पिंजन आदि काम पूरा हो गया हो या अचित्त रूई को पिंजती हो तो भिक्षा लेना कल्पे । या भिक्षा देने के बाद हाथ साफ न करे तो लेना कल्पे । यानि पश्चात् कर्मदोष न लगे ऐसा हो तो लेना कल्पे ।
सचित्त पृथ्वीकाय आदि चीज (सचित्त नमक, पानी, अग्नि, पवन भरी बस्ती, फल, मत्स्य आदि) हाथ में हो तो भिक्षा लेना न कल्पे।
साधु को भिक्षा देने के लिए सचित्त चीज नीचे रखकर दे तो लेना न कल्पे । सचित्त चीज पर चलती हो और दे तो न कल्पे ।
सचित्त चीज का संघट्टो करते हुए दे, सिर में सचित्त फूल का गजरा, फूल आदि हो तो भिक्षा लेना न कल्पे।
पृथ्वीकाय आदि का आरम्भ करती हो उनसे लेना न कल्पे | कुदाली आदि से जमीं खुदती हो तब पृथ्वीकाय का आरम्भ हो, सचित्त पानी में स्नान करती हो, कपड़े धोती हो या पेड़ को पानी देती हो तो अपकाय का आरम्भ होता है, चूल्हा जलाती हो तो तेऊकाय का आरम्भ, पंखा डालती हो या बस्ती में पवन भरती हो तो वायुकाय का आरम्भ होता है, सब्जी काटती हो तो वनस्पतिकाय का आरम्भ, मत्स्यादि छेदन करती हो तो त्रसकाय का आरम्भ । इस प्रकार आरम्भ करनेवाला भिक्षा देता हो तो उनसे भिक्षा लेना न कल्पे।
लिप्तहस्त - दहीं आदि से हाथ खरड़ित हो तो उनसे भिक्षा लेना न कल्पे । हाथ खरड़ित हो तो हाथ पर जीवजन्तु चिपके हो तो उसकी विराधना इसलिए न कल्पे।।
लिप्तमात्र - दहीं आदि से खरड़ित बरतन दे तो लेना न कल्पे ।
उद्वर्तती - बड़ा, भारी या गर्म बरतन आदि उठाकर भिक्षा दे तो लेना न कल्पे | बड़ा बरतन बार-बार घूमाया न जाए इसलिए उस बरतन के नीचे मकोड़े, चींटी आए हो उसे उठाकर वापस रखने से नीचे के कीड़े - मकोडे मर जाए, उठाने में कष्ट लगे, जल जाए आदि दोष रहे हैं । बडे-बडे बरतन उठाकर दे तो वो भिक्षा न कल्पे।
साधारण - काफी लोगों की मालिकी वाली चीज सबकी अनुमति बिना दे रहे हो तो वो भिक्षा न कल्पे, द्वेष आदि दोष लगे इसलिए न कल्पे।।
चोरी किया हआ - चोरी छुपे या चोरी करके देते हो तो भिक्षा लेना न कल्पे। नौकर-बह आदि ने चोरीछपे से दिया हुआ साधु ले और पीछे से उसके मालिक या सास को पता चले तो उसे मारे, बाँधे, गुस्सा करे आदि दोष हो इसलिए ऐसा आहार लेना साधु को न कल्पे ।
प्राभृतिका - लहाणी करने के लिए यानि दूसरों को देने के लिए बरतन में से दसरे बरतन में नीकाला हो उसे दे तो साधु को लेना न कल्पे ।
सप्रत्यपाय - आहार देने से देनेवाले को या लेनेवाले के शरीर को कोई अपाय-नुकसान हो तो वो लेना न कल्पे । यह अपाय - ऊपर, नीचे और तीरछे ऐसे तीन प्रकार से । जैसे कि खड़े होने में सिर पर खींटी, दरवाजा लगे ऐसा हो, नीचे जमीं पर काँटे, काच आदि पड़े हो वो लगने की संभावना हो, आसपास में गाय, भैंस आदि हो और वो शींग मारे ऐसा मुमकीन हो या ऊपर छत में सर्प आदि लटकते हो और वो खड़े होने से इँस ले ऐसा हो तो साधु को भिक्षा लेना न कल्पे ।
अन्य उद्देश - कार्पटिकादि भिक्षाचर आदि को देने के लिए या बलि आदि का देने के लिए रखा हआ आहार लेना न कल्पे । ऐसा आहार ग्रहण करने में अदत्तादान का दोष लगता है । क्योंकि वो आहार उस कार्पटिकादि के लिए कल्पित है। और फिर ग्लान आदि साधु को उद्देशकर आहार दिया हो तो उस ग्लान आदि के अलावा दूसरों को उपयोग के लिए देना न कल्पे, लेकिन यदि ऐसा कहा हो कि, वो ग्लान आदि न ले तो दूसरे कोई भी ले तो वो आहार दूसरों को लेना कल्पे । उसके अलावा न कल्पे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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