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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, पिंडनियुक्ति'
यहाँ शिष्य सवाल करता है कि, आहार तैयार करने से छह कायादि का आरम्भ गृहस्थ करता है, तो उस आरम्भ आदि का ज्ञानावरणादि पापकर्म साधु को आहार ग्रहण करने से क्यों लगे? क्योंकि एक का किया हुआ कर्म दूसरे में संक्रम नहीं होता । जो कि एक का किया हुआ कर्म दूसरे में संक्रम होता तो क्षपक श्रेणि पर चड़े महात्मा, कृपालु और पूरे जगत के जीव के कर्म को नष्ट करने में समर्थ है; इसलिए सारे प्राणी के ज्ञानावरणादि कर्म को अपनी क्षपकश्रेणी में संक्रम करके खपा दे तो सबका एक साथ मोक्ष हो । यदि दूसरों ने किए कर्म का संक्रम हो सके तो, क्षपकश्रेणी में रहा एक आत्मा सारे प्राणी के कर्म को खपाने में समर्थ है । लेकिन ऐसा नहीं होता, इसलिए दूसरों ने किया कर्म दूसरे में संक्रम न हो सके ? (उसका उत्तर देते हुए बताते हैं कि) जो साधु प्रमत्त हो और कुशल न हो तो साधु कर्म से बँधता है, लेकिन जो अप्रमत्त और कुशल होते हैं वो कर्म से नहीं बँधता । आधाकर्मी आहार ग्रहण करने की ईच्छा करना अशुभ परिणाम है । अशुभ परिणाम होने से वो अशुभ कर्मबँध करता है । जो साधु आधाकर्मी आहार ग्रहण नहीं करते, उसका परिणाम अशुभ नहीं होता, यानि उसको अशुभ कर्मबंध नहीं होता । इसलिए आधाकर्मी आहार ग्रहण करने की इच्छा कोशीश से साधु को नहीं करनी चाहिए । दूसरे ने किया कर्म खुद को तब ही बँधा जाए कि जब आधाकर्मी आहार ग्रहण करे और ग्रहण किया वो आहार खाए । उपचार से यहाँ आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है।
कौन-सी चीज आधाकर्मी बने? अशन, पान, खादिम और स्वादिम | इस चार प्रकार का आहार आधाकर्मी बनता है । इस प्रकार प्रवचन में श्री तीर्थंकर भगवंत कहते हैं। किस प्रकार का आधाकर्मी बनता है ? तो धान्यादि की उत्पत्ति से लेकर चार प्रकार का आहार अचित्तप्रासुक बने तब तक यदि साधु का उद्देश रखा गया हो, तो वे तैयार आहार तक का सबकुछ आधाकर्मी कहलाता है । वस्त्रादि भी साधु निमित्त से किया जाए तो उस साधु को वो सब भी आधाकर्मी-अकल्प्य बनता है । लेकिन यहाँ पिंड़ का अधिकार होने से अशन आदि चार प्रकार के आहार का ही विषय बताया है । अशन, पान, खादिम और स्वादिम यह चार प्रकार का आहार आधाकर्मी हो सकता है । उसमें कृत और निष्ठित ऐसे भेद होते हैं । कृत - यानि साधु को उद्देशकर वो अशन आदि करने की शुरूआत करना । निष्ठित यानि साधु को उद्देशकर वो अशन आदि प्रासुक अचित्त बनाना । शंका - शुरू से लेकर अशन आदि आधाकर्मी किस प्रकार मुमकिन बने ? साधु को आधाकर्मी न कल्पे ऐसा पता हो या न हो ऐसा किसी गृहस्थ साधु ऊपर की अति भक्ति में किसी प्रकार उसको पता चले कि, 'साधुओं को इस प्रकार के आहार आदि की जरुर है। इसलिए वो गृहस्थ उस प्रकार का धान्य आदि खुद या दूसरों से खेत में बोकर वो चीज बनवाए । तो शुरू से वो चीज आधाकर्मी कहलाती है।
अशन आदि शुरू से लेकर जब तक अचित्त न बने तब तक वो ‘कृत्त' कहलाता है और अचित्त बनने के बाद वो निष्ठित' कहलाता है । कृत और निष्ठित में चतुर्भंगी गृहस्थ और साधु को उद्देशकर होता है । साधु के लिए कृत और साधु के लिए निष्ठित । साधु के लिए कृत और गृहस्थ के लिए निष्ठित । गृहस्थ के लिए कृत (शुरूआत) और साधु के लिए निष्ठित, गृहस्थ के लिए कृत (शुरूआत) और गृहस्थ के लिए निष्ठित । इन चार भांगा में दूसरे और चोथे भांगा में तैयार होनेवाला आहार आदि साधु को कल्पे । पहला और तीसरा भांगा अकल्प्य।
साधु को उद्देशकर डाँगर बोना, क्यारे में पानी देना, पौधा नीकलने के बाद लणना, धान्य अलग करना और चावल अलग करने के लिए दो बार किनार पर, तब तक का सभी कृत कहलाता है । जब कि तीसरी बार छड़कर चावल अलग किए जाए तब उसे निष्ठित कहते हैं । इसी प्रकार पानी, खादिम और स्वादिम के लिए समझ लेना - तीसरी बार भी साधु के निमित्त से छड़कर बनाया गया चावल गृहस्थ ने अपने लिए पकाए हो तो भी साधु को वो चावल - हिस्सा न कल्पे, इसलिए वो आधाकर्मी ही माना जाता है । लेकिन डाँगर दूसरी बार छड़ने तक साधु का उद्देश हो और तीसरी बार गृहस्थ ने अपने उद्देश से छड़े हो और अपने लिए पकाए हो तो वो चावल साधु को कल्प सकते हैं। जो डाँगर तीसरी बार साध ने छडकर चावल बनाए हो, वो चावल गहस्थ ने अपने लिए पकाए हो तो बने हुए चावल एक ने दूसरों को दिए, दूसरे ने तीसरे को दिया, तीसरे ने चौथे को दिया ऐसे यावत् एक हजार
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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