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आगम सूत्र ४१/२, मूलसूत्र-२/२, ‘पिंडनियुक्ति ' यानि सबसे नीचे के विशुद्धि स्थान में रहा साधु, सबसे ऊपर विशुद्धि स्थान में रहे श्रावक से अनन्त गुण ज्यादा है। जघन्य ऐसे वो सर्व विरति के विशुद्धि स्थान को केवलज्ञानी की दृष्टि से - बुद्धि से बाँटा जाए और जिसका दूसरा हिस्सा न हो सके ऐसे अविभाज्य हिस्से किए जाए, ऐसे हिस्सों की सर्व गिनती के बारे में सोचा जाए तो, देश विरति के सर्व उत्कृष्ट विशुद्धि स्थान के यदि ऐसे अविभाज्य हिस्से हो उसकी सर्व संख्या को सर्व जीव की जो अनन्त संख्या है, उसका अनन्तवा हिस्सा, उसमें जो संख्या हो उस संख्या के दुगुने किए जाए और जितने संख्या मिले उतने हिस्से सर्व विरति के सर्व जघन्य विशुद्धि स्थान में होते हैं । सर्व विरति गुणस्थान के यह सभी जघन्य विशुद्धि स्थान से दूसरा अनन्त हिस्सा वृद्धिवाला होता है । यानि पहले संयम स्थान में अनन्त हिस्से वृद्धि करे तब दूसरा संयम स्थान आए, उसमें अनन्त हिस्से वृद्धि करने से जो आता है वो तीसरा संयमस्थान, इस प्रकार अनन्त हिस्से वृद्धि तब तक करे जब तक उस स्थान की गिनती एक अंगुल के असंख्यात भागों में रहे प्रदेश की संख्या जितनी बने । अंगुल के असंख्यात भाग के प्रमाण आकाश प्रदेश में रहे प्रदेश की संख्या जितने संयम स्थान को, शास्त्र की परिभाषा में एक कंड़क कहते हैं । एक कंड़क में असंख्यात संयम स्थान का समूह होता है । इस प्रकार हए प्रथम कंडक के अंतिम संयम स्थान में जितने अविभाज्य अंश है उसमें असंख्यात भाग वृद्धि करने से जो संख्या बने उतने संख्या का दूसरे कंडक का पहला स्थान बनता है। उसके बाद उससे दूसरा स्थान अनन्त हिस्सा ज्यादा आए ऐसे अनन्त हिस्से अधिक अनन्त हिस्से अधिक की वृद्धि करने से पूरा कंडक बने, उसके बाद असंख्यात हिस्से ज्यादा डालने से दूसरे कंडक का दूसरा स्थान आता है । उसके असंख्यात हिस्से वृद्धि का तीसरा स्थान । इस प्रकार एक-एक कंड़कान्तरित असंख्यात हिस्से, वृद्धिवाले संयम स्थान एक कंड़क के अनुसार बने उसके बाद, संख्यात हिस्से ज्यादा वृद्धि करने से संख्यात हिस्से अधिक का पहला संयमस्थान आता है।
उसके बाद अनन्त हिस्सा ज्यादा एक कंड़क के अनुसार एक एक असंख्यात हिस्से अधिक का संयमस्थान आए, वो भी कंड़क प्रमाण हो यानि संख्यात हिस्से अधिक का दूसरा संयम स्थान आता है । ऐसे क्रमक्रम पर बीच में अनन्त हिस्सा अधिक कंड़क उसके बीच असंख्यात हिस्से अधिक स्थान आते हैं । जब संख्यात हिस्से अधिक संयम स्थान की गिनती भी कंडक प्रमाण बने । उसके बाद संख्यातगुण अधिक पहला संयम स्थान
आए उसके बाद कंडक अंक प्रमाण अनन्त हिस्से वृद्धिवाले संयम स्थान आते हैं | उसके बाद एक असंख्यात हिस्से वृद्धिवाले संयम स्थान आए, ऐसे अनन्त हिस्से अधिक कंडक के बीच असंख्यात हिस्से अधिकवाले कंडक प्रमाण बने । उसके बाद पूर्व के क्रम से संख्यात हिस्से अधिक संयम स्थान का कंड़क करना । वो कंडक पूरा होने के बाद दूसरा संख्यातगुण अधिक का संयमस्थान आता है । उसके बाद अनन्त हिस्से अधिक संयम स्थान के बीच-बीच में कंड़क के अनुसार संख्यात हिस्से अधिक संयमस्थान आता है, उसके बाद तीनों के बीच में कंड़क प्रमाण संख्यात गुण अधिक संयम स्थान आता है, उसके बाद असंख्यात गुण अधिक का दूसरा संयम स्थान आता है । इसी क्रम से चार से अंतरित अनगिनत गुण अधिक के संयम स्थान आते हैं। उसके बाद एक संख्यात हिस्सा अधिक का संयम स्थान आए उस प्रकार से अनन्त हिस्से अंतरित असंख्यात हिस्से अधिक का कंड़क प्रमाण बने, उसके बाद दो के आँतरावाला संख्यात हिस्से अधिक का कंडक प्रमाण बने । उसके बाद तीन के आँतरावाला संख्यात गुण अधिक का कंडक प्रमाण बने, उन चारों के आंतरावाला असंख्यात् गुण अधिक का कंड़क प्रमाण बने । उसके बाद अनन्त गुण अधिक का दूसरा संयम स्थान आता है । इस क्रम के अनुसार अनन्त गुण अधिक के स्थान भी कंड़क प्रमाण करे । उसके बाद ऊपर के अनुसार अनन्त हिस्से अधिक का संयम स्थान उसके बीच-बीच में असंख्यात हिस्सा अधिक का उसके बाद दोनों बीच-बीच में संख्यात हिस्से अधिक का, उसके बाद तीन आंतरावाला संख्यात गुण अधिक का और उसके बाद चार आंतरावाला असंख्यात गुण अधिक का कंड़क करे । यानि षट् स्थानक परिपूर्ण बने । ऐसे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण षट् स्थानक संयम श्रेणी में बनते हैं । इस प्रकार संयम श्रेणी का स्वरूप शास्त्र में बताया है । आधाकर्मी आहार ग्रहण करनेवाला विशुद्ध संयम स्थान से नीचे गिरते हुए हीन भाव में आने से यावत् रत्नप्रभादि नरकगति की आयु बाँधता है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(पिंडनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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