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________________ आगम सूत्र ४१/१, मूलसूत्र-२/१, 'ओघनियुक्ति' दूसरे गाँव में जाँच करके आचार्य महाराज के पास आलोचना करे । आचार्य महाराज न हो तो गीतार्थ के पास आलोचना करे । गीतार्थ भी न मिले तो यावत् अन्त में श्री सिद्ध भगवंत की साक्षी में भी यकीनन आलोचना करके आत्मशुद्धि करनी चाहिए। सूत्र - ११४५ आलोचना, विकटना, शुद्धि, सद्भावदायना, निंदना, गर्हा, विकुट्टणं, सल्लुद्धरण पर्यायवाची नाम हैं । सूत्र - ११४६ धीर पुरुषने, ज्ञानी भगवंत ने शल्योद्धार करने का फरमान किया है, वो देखकर सुविहित लोग उसका जीवन में आचरण करके अपने आत्मा की शुद्धि करते हैं । सूत्र - ११४७-११५२ शुद्धि दो प्रकार से - द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि । द्रव्यशुद्धि वस्त्र आदि को साफ करने के लिए । भावशुद्धि मूलगुण और उत्तरगुण में जो दोष लगे हों, उसकी आलोचना प्रायश्चित्त के द्वारा शुद्धि करे । रूपादि छत्तीस गुण से युक्त ऐसे आचार्य को भी शुद्धि करने का अवसर आए तो दूसरों की साक्षी में करनी चाहिए । जैसे कुशल वैद्य को भी अपने आप के लिए इलाज़ दूसरों से करवाना पड़ता है । उसी प्रकार खुद को प्रायश्चित्त की विधि का पता हो तो भी यकीनन दूसरों से आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिए । ऐसे आचार्य का पता हो तो भी यकीनन दूसरों से आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिए । ऐसे आचार्य को भी दूसरों के आगे आलोचना की जरुरत है, तो फिर दूसरों की तो क्या बात । इस लिए हर कोइ गुरु के सामने विनयभूत अंजली, जुड़कर आत्मा की शुद्धि करे । यह सार है। जिन्होंने आत्मा का सर्व रजमल दूर किया है ऐसे श्री जिनेश्वर भगवंत के शासन में फरमान किया है कि, 'जो आत्मा सशल्य है उसकी शुद्धि नहीं होती। सर्व शल्य का जो उद्धार करते हैं, वो आत्मा ही शुद्ध बनता है।' सूत्र- ११५३ सहसा, अज्ञानता से, भय से, दूसरों की प्रेरणा से, संकट में, बिमारी की वेदना में, मूढ़ता से, रागद्वेष से, दोष लगते हैं यानि शल्य होता है । सहसा - डग देखकर उठाया वहाँ तक नीचे कुछ भी न था, लेकिन पाँव रखते ही नीचे कोई जीव आ जाए आदि से । अज्ञानता से - लकड़े पर निगोद आदि हो लेकिन उसके ज्ञान बिना उसे पोछ डाला इत्यादि से । भय से - झूठ बोले, पूछे तो झूठा जवाब दे इत्यादि से । दूसरों की प्रेरणा से - दूसरों ने आड़ा-टेढ़ा समझा दिया उसके अनुसार काम करे । संकट में – विहार आदि में भूख-तृषा लगी हो, तब आहार आदि की शुद्धि की पूरी जाँच किए बिना खा ले आदि से । बिमारी के दर्द में - आधाकर्मी आदि खाने से, मूढ़ता से - खयाल न रहने से । रागद्वेष से - राग और द्वेष से दोष लगते हैं। सूत्र - ११५४-११५५ गुरु के पास जाकर विनम्रता से दो हाथ जुड़कर जिस प्रकार से दोष लगे हों, वो सभी दोष शल्यरहित प्रकार से, जिस प्रकार छोटा बच्चा अपनी माँ के पास जैसा हो ऐसा सरलता से बोल देता है उसी प्रकार माया और मद रहित होकर दोष बताकर अपनी आत्म शुद्धि करनी चाहिए। सूत्र-११५६ शल्य का उद्धार करने के बाद मार्ग के परिचित आचार्य भगवंत जो प्रायश्चित्त दे, उसे उस प्रकार से विधिवत् पूर्ण कर देना चाहिए कि जिससे अनवस्था अवसर न हो । अनवस्था यानि अकार्य हो उसकी आलोचना न करे या आलोचना लेकर पूर्ण न करे । सूत्र-११५७-११६१ शस्त्र, झहर, जो नुकसान नहीं करते, किसी वेताल की साधना की लेकिन उल्टी की इसलिए वेताल, प्रतिकूल होकर दुःख नहीं देता, उल्टा चलाया गया यंत्र जो नुकसान नहीं करता, उससे काफी ज्यादा दुःख शल्य मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(ओघनियुक्ति)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद” Page 46
SR No.034709
Book TitleAgam 41 1 Oghniryukti Sutra Hindi Anuwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherDipratnasagar, Deepratnasagar
Publication Year2019
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 41 1, & agam_oghniryukti
File Size2 MB
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